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धार्मिक विचार
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करता है । उपरोक्त रत्नत्रय में से सर्वप्रथम समस्त प्रयत्नों द्वारा सम्यग्दर्शन को भलीभांति प्रकट करना चाहिए क्योंकि उसके होने पर ही सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र होता है।" सम्यग्दर्शन का स्वरूप :
जोव अजीवादि तत्त्वार्थों का सदा विपरीत अभिप्राय रहित अद्धान ही सम्यग्दर्शन है । वह श्रद्धान ही पात्मा का स्वरूप है। उक्त जीवादि तत्त्वों में बहत समय से छिपी हई आत्मज्योति द्धनय के द्वारा प्रकट होती है। वह आत्मज्योति या आत्मस्वरूप समस्त नैमित्तिक भावों से भिन्न है, एक रूप है, तथा पद पद पर चैतन्य चमत्कार मात्र प्रकाशमान है। उक्त आत्मज्योति की जो अनुभूति है, वहीं यात्मख्याति है तथा जो आत्मख्याति है, वहीं सभ्यग्दर्शन है। ऐसा सम्यग्दर्शन जिसे प्रकट होता है उसे दूसरों से पूछने की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि उसके प्रकट होने पर प्रात्मा की तृप्ति तथा वचन अगोचर सुख की प्राप्ति होती है। वह सुख तत्काल ही स्वयं के अनुभव में प्राता है ।
सम्यग्दर्शन के पोषक पाठ मंग :- सम्यग्दर्शन के पोषक पाठ अंग माने गये हैं। उनमें सर्वज्ञदेव कथित समस्त जीवादि पदार्थो के अनेकान्तात्मक स्वरूप में शंका न करना प्रथम निशंक्ति अंग है। इस लोक में ऐश्वर्य-सम्पदा आदि तथा परलोक में चक्रवर्ती, नारायण
आदि पदों तथा एकांतवादी अन्य धर्मों की बांछा नहीं करना दूसरा निकांक्षित अंग है । भूख प्यास. सर्दी गर्मी प्रादि विभिन्न भावों में तथा मलिन पदार्थों में ग्लानि नहीं करना तोसरा निविचिकित्सा अंग है। लोक में शास्त्राभास, धर्माभास तथा देबलाभास में तत्त्वरूचिवान पुरुषों द्वारा सदा मूढ़ता रहित श्रदान करना चौथा यमुढढष्टि अंग हैं । दुसरे के दोषों को ढकना तथा मार्दव, क्षमा, संतोषादि धर्म की अपने में वृद्धि करना पाचवां उपगहन अंग है। काम क्रोध मद लोभ आदि विकार के कारण न्यायमार्ग से विचलित हुए स्वयं तथा पर को पुन: स्थित करना छठवां स्थिति करण अंग है । मोक्ष सुखसंपदा का कारण धर्म
१. पु. मि. २०, २१ २. वहीं, २२ ३. समयसार गा. १३ की नात्मख्याति टीका, तथा कलश ऋ ५ ४. समयसार गा. २०६ की आत्मख्याति टीका ।