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मा करानान्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के लोभ से, राग से, भय से भी कभी भी वन्दना-विनय आदि नहीं करे।' ऐसा जिनागम का प्रादेश है। आहार के ४६ दोषों के त्याग का उपदेश :__मुनियों को आहार के ४६ दोषों को दूरकर ही आहार लेन का विधान है। उनमें १६ उद्गमदोष, १६ उत्पादन दोष, १० भोजन सम्बन्धी दोष तथा ४ अन्य दोष परिगणित है ।
१६ उद्गम दोषों के नाम :- प्रधः कर्म, उद्दिष्टाहार, साधिक, प्रति, मित्र, स्थापित, बलि, प्राभत, प्रादुष्कर क्रीतनर, ऋण, परावर्त, अभिहत उद्भिन्न मालरोहण पाच्छेद्य, अनीशार्थ ये १६ दोष दातार के प्राधीन हैं।
१६ उत्पादन दोषों के नाम :- धात्री, दूत. निमित्त, आजीव, वनीयक, चिकित्सा, क्रोष मान, माया, लोभ, पूर्व संस्तुति, पश्चात् संस्तुति, विद्या. मंत्र, चूर्ण तथा मूल दोष, ये १६ पात्र के प्राधीन है।
१० भोजन सम्बन्धी दोष :- शंकित, मृक्षित, निक्षिप्त विहित, संव्यवहार, दायक, जन्मिश्र, परिणत, लिप्त, परिजन ये १. भोजन संबंधी दोष हैं।
शेष ४ अन्य दोष :- अंगार, धूप, संयोजन तथा प्रमाण दोष, ये ४ अन्य दोष है। इस तरह ४६ दोपों का निषेध करके ही आहार लेना यथार्थ मुनि का कर्तव्य है।
इस प्रकार मुनि-पाचार पर प्रकाश डालने के पश्चात् श्रावकाचार पर प्रकाश डाला जाता है ।
श्रावकाचार प्राचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है कि जो जीव बारबार समभाने पर भी सवाल पाप रहित मुनि-वृत्ति को ग्रहण करने में असमर्थ हो, उसे एक देश पाप क्रिया र हित श्रावकचार का उपदेश दिया जाता है। श्रावक भी अपनी शक्ति अनुसार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप मुक्ति मार्ग का हमेशा सेवन
१. मुलाराधना (भनवती अराधना) पृ. १५७ २ माधु को ध्यान में रखकर बनाया गया पाहार उद्दिष्टाहार है। ३. पु. सि. १७