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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
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शुवनय भी लिखा है - यथा “कर्ममोक्ष निमित्तं ज्ञानमात्र भूतार्थ धर्म न श्रद्धत्ते" तथा "शुवनय एक एव भूतार्थत्वात् भूतमर्थ प्रद्योतयति"२ इन उपरोक्त कथनों का सार ग्रहण कर आचार्य पद्मनंदि ने भी एक पद्य इसी सम्बन्ध में लिखा है जो इस प्रकार है:
व्यवहृतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनयः । स्वार्थ मुमुक्षरमिति वक्ष्ये तदाश्रितं किंचित् ।। 3
इसी तरह अमृतचन्द्र ने निश्चयनय को भूतार्थ तथा व्यवहार नय को अभूतार्थ लिखकर भूतार्थ ज्ञान से विमुख समस्त अभिप्राय को संसारमय लिखा है। इससे यह भी ध्वनित है कि भूतार्थज्ञान से विमुखपना संसारमय है तो भूतार्थनय (शुद्धनय) का सम्मुखपना (आश्रय) परमपद (मोक्ष) का कारण स्वयमेव सिद्ध हुआ। इसी अभिप्राय को पद्मनंदि ने भी ज्यों का त्यों दुहराया है। उक्त दोनों प्राचार्यों के कथन साम्य को भी देखिये:- (दोनों पद्य प्रार्या छंद में हैं।)
निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थबोधविमुख: प्रायः सर्वोऽपि संसारः ।। (अमृतचन्द्र )" व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः । शुद्धनयमाश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यतयः पदं परमम् ।। (पद्मनंदि}५
अन्यत्र अमृतचन्द्र ने लिखा है कि हे भव्य ! तुझे व्यर्थ के कोलाहल से क्या लाभ है। तू इस कोलाहल से विरक्त हो और एक चैतन्यमात्र वस्तु को स्वयं निश्चल-लीन होकर देख, ऐसा छह माह तक अभ्यास कर और देख कि ऐसा करने से अपने हृदय सरोबर में उस आत्मा की प्राप्ति होती है या नहीं ? उस आत्मा का तेज-प्रकाश पुद्गल से भिन्न है । उक्त कथन के सार को पद्मनंदि ने भी थोड़ा-बहुत शाब्दिक परिवर्तन
१, समयसार गाथा २७५ की प्रास्मख्याति टीका, पृष्ठ ३९७ २. वही गाथा ११ की टीका, पृष्ठ २३ ३. पद्मनंदिपंचविंशतिः, निश्चयपंचाशत्, पद्य नं. ६ ४, पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य नं. ५ ५. पद्मनंदिपचविंशति, निश्वमपंचाशत्, पद्य नं. ६