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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व कर पुनरूद्धत किया है। उदाहरण के लिए निम्न पद्यों पर तुलनात्मक दृष्टि से अवलोकन कीजिये:-- विरम किमपरेणाऽकार्य कोलाहलेन,
स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् । हृदयसरसिपुसः पुद्गलाद मिश्रानो,
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किं चोपलब्धिः ॥ ३४ ॥' निश्चेतव्यो जिनेन्द्रस्तदतुलवचसां गोचरेऽर्थे परोक्षे । कार्यः सोऽपि प्रमाणं वदत किमपरेणालकोलाहलेन ॥ १२८ ॥ किमालकोलाहले रमलबोध संपन्निधेः,
समस्ति यदि कौतुकं किल तवात्मनो दर्शने । निरुद्धसकलेन्द्रियो रहसिमुक्तसंग्रहः,
कियन्त्यपि दिनान्यत: स्थिरमना भवान् पश्यतु ॥१४४॥ उपयुक्त १२८ पद्य में “वदत किमपरेणालकोलाहलेन" अंश समयसार कलश के ३४ दें पद्य का प्रथम चरण "विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन" का प्रायः ज्यों का त्यों अनुकरण है तथा पद्य १४४ में "किमालकोलाहलेरमलबोध..........." और "रहसिमुक्तसंग्रहः कियन्त्यपि दिनान्यतः स्थिरमना भावन पश्यतु" इन अंशों में उक्त समयसार कलश के ३४ वें पद्य के प्रथम व द्वितीय चरणों का अनुसरण स्पष्ट दिखाई देता है।
यहाँ एक और उदाहरण दृष्टव्य है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार तथा पंचास्तिकाय की टीकायों के अन्त में लिखा है कि अपनी सहज योग्यता से वस्तुस्वरूप को सूचित करने वाले शब्दों द्वारा यह समयसार की व्याख्या की गई है, अपने स्वरूप में लीन अमृतचन्द्र सूरि का इसमें कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है। इन्हीं शब्दों को किचित् परिवर्तन के साथ पद्मनन्दि ने भी उद्धृत किया है। दोनों आचार्यों के मूल पद्यों को भी देखिये, जो इस प्रकार हैं
-- - १. समयमार कलश, अमृत चन्द्रप्रणीत, क्रमांक ३४ २. पद्मनंदिपंचविंशतिका, धर्मोपदेशामृतम्, पद्य क्रमांक १२८ ३. वही, पद्य क्रमांक १४४