________________
A
nti
-
e
-....
व्यक्तित्व तथा प्रभाव ] .
[ १७७ स्वशक्ति संसूचित वस्तुत्त्वं, याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति. कर्तव्य मेवामुतचन्द्रसूरेः ।। (अमृतचन्द्र)' निश्चयपंचाशत् पमनंदिनं सूरिमाश्रिभिः कश्चित् । शब्दैः स्वशक्ति सूचित वस्तुगुणविरचितेयमिति ।। { पद्मनंदि)२ हमी तह र
वन्द्र सम्यग्दृष्टि के साहस तथा निर्भयता की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव ही ऐसा श्रेष्ठतम साहस करने में समर्थ हैं कि वज्र के गिरने पर, तीनों लोक के प्राणी उसकी ध्वनि के भय से अपने मार्ग से चलायमान हो जावें, परन्तु ये सम्यग्दष्टि "मैं ज्ञानशरीरो है, पर के द्वारा प्रबध्य है" ऐसा जानते हैं इसलिए स्वाभाविक निर्भयता के कारण सभी प्रकार की शंका को छोड़कर अपने ज्ञानस्वभाव से चलायमान नहीं होते। इसी आशय की पुनरावृत्ति पद्मनंदि ने भी की है। उक्त आशय सूचक पद्यों का साम्य देखिये
सम्यग्दृष्टय एव साहस मिदं का शमन्ते परं, यद् वज्र ऽपि हतत्यमो भयबलत् त्रैलोक्य मुक्तानि । सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं,
जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुष बोघाच्चयन्ते न हि ।। (अमृत चन्द्र) वज्जे पतत्यपि भयद् त विश्वलोकमुक्तावनि प्रशामिनो न चलन्ति योगात् । बोधप्रदीपहतमोहमहान्धकाराः सम्यग्दृशः किमुत शेषपरीषहेषु ।।
(पद्मनंदि । एक और स्थल पर अमतचन्द्र ने लिखा है कि प्रात्मतत्त्व का चेतन-अचेतन परद्रव्यों के साथ किसी प्रकार का भी सम्बन्ध नहीं है । जब (आत्मा का) पर के साथ कर्ता-कर्म सम्बन्ध भी नहीं है तब प्रास्मा के पुद्गलकर्म का कर्तापना कैसे होगा? अर्थात् नहीं होगा। इसी भावार्थ को दुहराते हुए पद्मनंदि लिखते हैं - मैं एक चैतन्यस्वरूप ही हूँ, उससे भिन्न दूसरा मेरा कोई भी स्वरूप कभी भी मेरा नहीं हो सकता। किसी
-
-
--
-
१. समयसार कलश, श्रमांक २७८ पंचा स्तिकाय टीका का अन्तिम पद्य २. पदमनंदि पंचविशतिः निश्चयपंचाशत्, पद्य नं. ६१ ३. समयसार कलश, क्रमांक १५४ ४. पद्मनंदिपंचविशतः, धर्मोपदेशामृतम्, पद्य नं. ६३