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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
में पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के श्लोकों की बहुतायतता है, उदाहरण के लिए "अहिंसासत्यव्रतविचार" नामक बारहवें अध्याय में कुल ११३ श्लोकों में ४३ श्लोक पुरुषार्थसिद्धयुपाय के हैं।
इस प्रकार अमृतचन्द्र का धर्मरत्नाकरकार जयसेन पर प्रभाव स्पष्टरूप से दिखाई देता है।
प्राचार्य पदमनंदि (पंचम) पर प्रभाव (ईस्वी १०१६-११३६) प्राचार्य पद्मनदि (पंचम) श्री वीरनंदि के शिष्य थे, साथ ही ज्ञानार्णवकार शुभचन्द्राचार्य के भी शिष्य थे। वीरनंदि इनके दीक्षागुरु तथा सुमामा शिक्षापुर : इन्होने नंदिपक ति: नामक ग्रन्थ की रचना की थी। उक्त ग्रन्थ के एकत्वसप्तति नामक अधिकार की टीका बिक्रम सं. ११६३ की उपलब्ध है। इनका समय ईस्वी १०१६ से ११३६ है।' आ आचार्य अमृतचन्द्र से प्रभावित थे । मन दि के समक्ष अमृतचन्द्र की कृतियाँ उपस्थित थीं, जिनका पालोड़न करके ही उनका उपयोग पदमनदि ने अपने ग्रन्थ की रचना में किया है। उन्होंने न केवल अमृत वन्द्र की तत्त्वनिरूपण शैली को अपनाया, अपितु उनकी कृतियों की शब्दावलि का भी यथावत् प्रयोग किया है। यहाँ तत्सम्बधी कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
पद्मनंदि ने अमृतचन्द्र के ग्रन्थों के आधार पर अपने ग्रन्थ में पद्य रचना की है। अमृत चन्द्र द्वारा निरूपित विषय को लगभग समान रूपेण प्रस्तुत किया है। उदहरण के लिए अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में लिखा है कि अज्ञानी जीवों को समझाने (ज्ञान कराने के लिए आचार्य अभूतार्थव्यबहारनय का उपदेश देते हैं और जो केवल व्यवहार नय को ही जानता है, उस मिथ्यावृष्टि जीव को उपदेश नहीं है। उनका मूल पद्य इस प्रकार है:
अबुद्धस्य बोधनार्थ मुनीश्वराः देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य' देशना नास्ति ॥
इसके अतिरिक्त इन्होंने आत्मख्याति टीका में कर्मक्षय या कर्म से मुक्ति का निमित्त ज्ञानरूप भूतार्थ धर्म ही बताया है । भूतार्थनय को ही १. जनेन्द्र सिद्धांतकोश- भाग ३ पृष्ठ १० २. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय - पद्य-६