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[ माचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
याश्चर्यान्वित करती है। पुरुषार्थसिद्धपान आर्या छन्दों में तथा तत्रार्थसार अनुष्टुप छन्दों में सहज सुगम रूप के उदाहरण हैं । समयसारकला तथा कृत्रिमता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है । ग्रात्मरूपातिकलव युक्तः • टोका का तो गंगा-यमुना के संगम की भांति प्रनुभव किया जा सकता है। जिसमें अवगाहन करके पाठक अभूतपूर्व सन्तुष्टि तथा परमानन्द का अनुभव करता है |
संस्कृत भाषा पर प्रमृतचन्द्र का आधिपत्य है । दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाने तथा गुड़े रहस्यों को उद्घाटित करने की क्षमता उनकी गद्य तथा पद्ममयी दोनों प्रकार की भाषाओं में है । जहाँ एक ओर वे सरल, सुगम, सुबोध सोदाहरण तथा बालबुद्धिगम्य भाषा के प्रयोग में मस्त हैं, वहीं दूसरी ओर वे क्लिष्ट, दुर्गम सामासिक एवं तर्कप्रधान भाषा के प्रयोग द्वारा विजनों के गर्भ को खर्व करने में भी समर्थ हैं । इसप्रकार उनकी भाषा प्रौढ़ता, भावोत्कर्ष, रसोत्कर्ष, अर्थगांभीर्य आदि विशेषताएं उनके उच्चकोटि के साहित्य के प्रमाण हैं ।
उनकी श्रात्मख्याति टीका तत्वज्ञान की गम्भीरता तथा आध्यात्मिक रसोत्कर्ष का ज्वलंत उदाहरण है | आचार्य कुन्दकुन्द को अभिप्रेत आत्मतत्व के सूक्ष्म विश्लेषण एवं निदर्शन कराने में उनकी अर्थवाही - भावप्रवण भाषा समर्थ सिद्ध हुई है । श्रात्मतत्व का साक्षाकार कराने में अमृतचन्द्र ने कोई कसर नहीं उठा रखी है। उनकी भाषा अर्थका अनुधावन पूर्ण प्रामाणिकता के साथ करती है । उनके भाषाविषयक प्रौढ़ प्रयोगों से अमूर्तशुद्धात्म-रूप-परंब्रह्म साकार एवं सचेतरूप में प्रकट हो उठा है। आचार्य कुन्दकुन्द के सुत्रगत भाव रत्न की उपमा को तथा अमृतचन्द की भाषा स्वर्ण की उपमा को प्राप्त होकर पाठकों के समक्ष मणिकांचन संयोग का सुन्दर सुमेल उपस्थित करते हैं। अद्भुत अश्रुतपूर्व श्रात्मा के एकत्वविभक्त-सजीव सौन्दर्य को अभिव्यक्त करके प्रत्मपूजक भाषादेवी मानो पूज्य एवं श्रेष्ठ बन गई है ।
स्वयं
मृतचन्द्र की गद्य-पद्यमयी भाषा, भाषाविषयक अनेक वैशिष्ट्यों व प्रयोगों के कारण, आकर्षक, चमत्कारोत्पादक, सरम एवं हृदयावर्जक बन गई है। साथ हो प्रमृतचन्द्र के प्रलोकिक प्राध्यात्मिक व्यक्तित्व के संस्पर्श से भाषा में अलौकिक रस समा गया है। जिसके अस्वादन से मनमपुर मत्त होकर नाच उठता है। यहाँ उनके नाना विषयक वैशिष्ट्यों की कुछ उदाहरणों द्वारा आलोकित किया जाता है ।