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पश्चम अध्याय
साहित्यिक मूल्यांकन
प्राचार्य अमृतचन्द्र के व्यापक व्यक्तित्व का विहंगामावलोकन करने के बाद उनकी कृतियों का साहिचिमा नबनान करने के लिए उनके साहित्य में उपलब्ध विभिन्न विशेषताओं पर प्रकाश डाला जा रहा है । उनमें भाषा, शैली, अलंकार यादि बिन्दुओं का अवलोकन करना आवश्यक है। भाषा :
प्राचार्य अमृतचन्द्र संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के निष्णात, अधिकारी विद्वान थे । संस्कृत पर तो उनका असाधारण प्रभुत्व था । उनकी लेखनी के इशारे और सहारे पर संस्कृत वाङमय की गद्यसरिता अनेक वैशिष्ट्य रूप तरंगों के साथ उद्वेलित हो उठती थी । पद्यरूप कामिनी अपनी समस्त कलाओं के साथ नृत्य करने तयार रहती थी । गद्यरूप भाषा प्रवाह निर्भर की भांति प्रवाहित होती हुया तथा पद्यमयी भाषा अध्यात्म रस के फुब्बारों की तरह प्रवाहित होती हुई अध्यात्म एवं साहित्य रसिकों का मनमोह लेती है। पाठक उनकी भाषा में अपूर्व मिठास,सहज आकर्षण तथा गम्भीर ज्ञान भरा पाते हैं। संस्कृत भाषा प्रायः तीन रूपों में प्रकट होली है। वे तीन रूप है गद्य, पद्य तथा चम्पू मिश्र)। टीकायों में उन्होंने उक्त तीनों साहित्य रूपों का प्रयोग किया है, जबकि मौलिक रचनाओं में केवल पद्यरूप में ही अभिव्यक्ति हुई है । यात्मख्याति,तत्त्वदीपिका तथा समयव्याख्या टीकाओं में गद्यम्य भाषा-प्रौढ़ता देखते ही बनती है। समयसार. कलश, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, तत्त्वार्थसार तथा लघुतत्त्वस्फोट इन रचनाओं में परिष्कृत पद्यरूप का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण उपलब्ध है | आत्मस्यानि कलशयुक्त टीका में चम्पू या मिश्रभाषा रूप के दर्शन होते हैं। उनके विशाल, निर्दोष गन्ध - गगन में पद्यरूप सितारों की झिलमिलाहट साहित्यरमिकों का हृदय प्रफुल्लित करती है, सहृदयजनों का मन मोह लेती है। उनकी कविता कामिनी कभी सीधे सादे, सहज देश में प्रकट होती है, तो कभी बन्द, रस एवं प्रालंकारों से अलंकृत होकर पाठकों को