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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व स्पष्ट है कि पंचाध्यायी अमृतचन्द्र की रचना नहीं है, अपितु पं. राजमल की ही है।"
दुसरे - पं. राजमल ने उक्त ग्रन्थ में पुरुषार्थसिद्धयुपाय का "येनाशन मुदृष्टि'............" नामक पद्य "उक्तं च' लिखकर उद्धृत किया है।' इससे स्पष्ट है कि यदि उक्त ग्रन्थ अमृतचन्द्र की कृति होती तो वे स्वयं ही अपनी कृति में अपने दूसरे ग्रन्थ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के उक्त ११२वें श्लोक को "उस्तं च" रूप में कैसे उद्धृत करते, अतः यह उद्धरण पं. राजाल्ल द्वारा ही उदाहृत किया गया प्रतीत होता है। इससे पंचाध्यायी भी उनकी ही रचना सिद्ध होती है।
तीसरे - पंचाध्यायी तथा लाटी संहिता में परस्पर तुलना करने से ज्ञात होता है कि दोनों रचनात्रों की कथन शैली, लेखनप्रणाली, रचनापद्धति एक जैसी है, ऊहापोह का ढंग, पदविन्यास और साहित्य में भी दोनों में समानता है। दोनों में किन्च, नन्, अथ, अपि, अर्थात, अयमर्थः, अयभावः, एवं, मैवं, मैवं, नो, न चाराडक्यं, चेत्, नोचेत्, यतः, ततः, अत्र, तत्र. तद्यथा इत्यादि शब्दों का प्रचुर प्रयोग समान रूप से पाया जाता है । दोनों ग्रन्थों की लेखनी एवं शैली से प्रतीत होता है कि दोनों रचनाएँ एक ही कर्ता की है।
चौथ - लाटीसंहिता व पंचाध्यायी दोनों के श्लोकों में भी समानता पाई जाती है। उदाहरण के लिए पंचाध्यायी के द्वितीय अध्याय के ३७२ से ३६६ तक के पद्य लाटीसंहिता के तीसरे सर्ग के २७वें श्लोक से ५४३ तक समान हैं । इसी तरह चाध्यायी के ४१० से ४३४ तक के पद्य लाटीसंहिता के ५५ से ७४ तक के पद्यों में साम्य पाया जाता है। अन्य पद्यों में पंचाध्यायी के ४३५, ४३६. ४३६ से ४७६ तक तथा लादी संहिता के क्रमश: ८०, ८१, ८२ से ११४ तक के पद्यों में समानता है। इसी तरह अन्य कितने ही पद्य साम्य प्रदर्शित करते हैं। इससे दोनों कृतियों के कर्तव में भी एकत्व यथवा अभेदपना स्पष्ट होता है ।
पांचवें - चाध्यायी के प्रारम्भिक चार मंगलाचरण विषयक पद्य तथा लाटीसंहिता के प्रारम्भ के ६ मंगलपद्यों में भावसाम्य पाया जाता है।
उठवे - f. जुमलकिशोर के लेख द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों एवं परीक्षण के बाद प्रायः अधिकांश विद्वानों ने एकमतेन पंचाध्यायी को पं. राजमल की कृति माना है, प्रमतचन्द्र की नहीं ।
१. "वीर" पत्र वर्ष ३, अंक १२, १३ । २. पंचाध्यायी अंक २, श्लोक नं. ७७१ के बाद ।