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कृतियाँ |
[३-३ जचती । उपर्युक्त कथन मात्र निराधार अनुमान हैं अतः उक्त श्रावकाचार नामक प्राकृत रचना अमृतचन्द्र ने की है, यह मान्यता भी निराधार
ढाहसो गाया :___मेघविजयजी ने एक प्राकृत गाथा हादसीगाथा में उद्धृत देखकर उसे अमनचन्द्रवत मानकर, सम्पर्ण ग्रन्थ को ही अमतचन्द की रचना मान लिया है, जो मात्र कापना ही है । ढाढसीगाथा नामक लघुकति का एक सम्करण माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला की १३वीं जिन्द के रूप में निकल चुका है । परन्तु उसमें लेखक के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं दी गई है। प. नाथुराम प्रेमी ने उक्त अन्य को कोई काष्ठासंधी आचार्य की कृति अनुमानित किया है, क्योंकि ऐसा प्रत्य में प्रागत कठो वि मूलसंघो" (काटासंघ भी मूलसंध है) पदों पर से प्रतीत होता है। पंचाध्यायी :
उस ग्रन्थ का सर्वप्रथम प्रकाशन पं. मक्खनलाल शास्त्री कत भाषाटीका का किया गया । भाषाटीकाकार ने इसे प्राचार्य अमतचन्द्रसूरि की रचना माना है । टीकाकार ने पंचाध्यायी को अमृतचन्द्र कृत घोषित तो किया है. परन्तु उसके लिए कोई ठोस प्रमाण प्रस्तुत नहीं किये । दुसरी अोर प्रसिद्ध साहित्यकार पं जुगल किशोरजी ने अपने एक लेख द्वारा ठोस प्रमाणों के प्राचार पर यह सिद्ध किया है कि उक्त ग्रन्थ अमृतचन्द्रसूरि कृत नहीं है। उसके रचयिता लाटीसंहिता के कर्ता तथा समयसारकला के भाषाटोकाकार महाकवि पं. राजमल पाण्डे हैं । उक्त रचना के सम्बन्ध में कुछ तक एवं प्रमाण इस प्रकार हैं :
प्रथम तो जाध्यापी में अध्याय दो, इलोक में ४६६ के बाद "संवेयो............ जिक्वेनो................।' इत्यादि गाथा "उक्तं च" रूप में उद्धृत की गई है, जो वसुनंदिश्रावकाचार की ४६वीं गाथा है । वसुनंदि का समय विक्रम की १२वीं सदी है, जो अमृतचन्द्र से काफी बाद हुए हैं; अतः उनल गाथा का उद्धरण वसुनंदि के पश्चादवर्ती पं. राजमल्ल द्वारा दिया जाना सम्भब है. उनके पूर्ववर्ती अमतचन्द्र द्वारा सम्भव नहीं है । उक्त गाथा को प्रक्षिप्त भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसके सन्दर्भ में अग्रिम श्लोक ४६७ व की रचना की गई है जिसमें "उक्त गाथार्थसूत्रेऽपि प्रशमादिचतुष्टयम्" इत्यादि कथन द्वारा गाथा को सन्दभित किया गया है । अतः 1. Pravaxhanasara Freiace 95 Edited by A. IV. Upadhye. 2. Itid – Page 95 तथा पुरातन जैन याम्यसूलो - पृ. १०४ (प्रस्तावना.