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जीवन परिचय ]
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अपने प्रथ पुरुषार्थसिद्ध पाय में व्यवहार नय का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए लिखा है :
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अनुप घोषनार्थं न देयं । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ ६ ॥
पद्मनंदि ने भी अपने ग्रंथ पद्मनंदिपंचविशति में उपयुक्त पद्य के शब्दों एवं भावों का अनुकरण करते हुए लिखा है :
व्यवहृतिरबोधजन बोधनाय, कर्मक्षयाय शुद्धयः । स्वायं मुमुक्षुरहमिति वक्ष्ये तदाश्रितं किंचित् ।। ६०५ ।।
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इसी प्रकार अमृतचन्द्र ने समयसार कलश में "विरम किमपरेणाकार्य कोलाहलेन "" इत्यादि पश्च द्वारा समस्त प्रकार के कोलाहल बंदकर आस्मोपलब्धि हेतु स्वयं एकाग्र होकर प्रयास करने की प्रेरणा दी। इसी का अनुकरण करते हुए पद्मनंदि ने भी पद्मनंदिपंचविशति में " निश्चे तव्यो 'वदत किमपरेणालकोलाहलेन इत्यादि पद्य रचना कर समस्त प्रकार के कोलाहल से हठ कर जिनेन्द्र वचनों की प्रतीतिकर आत्मानुभवरूप सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हेतु प्रेमपूर्वक प्रयत्न करने की प्रेरणा दी है। इस प्रकार अन्यत्र कई स्थलों पर पद्मनंदि ने अमृतचन्द्र की कृतियों का अनुकरण किया है। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि अमृतचसूरि ने पद्मनंदि को भी अध्यात्म की और आकृष्ट किया । पद्मनंदिपंचविशतिः ः का निश्चय पंचाशत् नामक ६२ श्लोकों का प्रकरण समयसार तथा आत्मख्याति टीका के आधार पर रचा है। इससे सिद्ध है कि आचार्य पद्मनंदि के समक्ष अमृतचन्द्र की कृतियां विद्यमान थी। अतः पद्मनंदि के समय से अर्धशताब्दी पूर्व अमृतचन्द्र अवश्य रहें होंगे। पद्मनंदि का समय विक्रम १०७३ से ११६३ है । इस आधार पर श्राचार्य अमृतचन्द्र
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१. समयसार कलश क्र. ३४ ( अजीवाधिकार )
२. पद्मनंदिपंचविशतिः पद्य ऋ. १२८ "धर्मोपदेशामृतम्' अधिकार /
३. अमृतचन्द्रकृत समयसार कलश ३४, १५४,२००,२७८, तथा पुरुषार्थ सिद्ध पाय पच क्र. ४, ५, ६, को क्रमशः पद्मनंदिपंचविशति के पद्म क्र. १४४,६३,३६१, ६५ तथा ६०६,६०८,६०५ से तुलना करने पर स्पष्ट होता है कि पद्मनंदि अमृतचन्द्र के ही शब्दों और भावों को ज्यों का त्यों अथवा किचित् शब्द परिवर्तन कर प्रस्तुत किया है।
४. जैनसाहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ १६०