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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुं त्व
इससे यह सिद्ध है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र एवं उनकी कृतियों का अस्तित्व पद्मप्रभमलघारीदेव के काल विक्रम सं० १२३२ के लगभग अर्द्ध शताब्दी पूर्व अवश्य रहा होगा, अतः अमृतचन्द्र का समय तेरहवीं सदा विक्रम का का प्रारम्भ अथवा बारहवीं का उत्तरार्द्ध अनुमानित होता है ।
आचार्य शुभचन्द्र ने अपने "ज्ञानार्णव' (पृ. १६५ ) में अमृतचन्द्र की पुरुषार्थ सिद्धय पाय का "मिथ्यात्ववेदरा प्रादि (११६ वां) पद्य “उक्तं च" रूप से उद्धृत किया है अतः अमृतचन्द्र से पूर्ववर्ती होना स्पष्ट है | शुभचन्द्र के ज्ञानर्णव का एक श्लोक' पद्मप्रभमलघारी देव ने की ठीक लप्त किया है। स्वर्गीय नाथूराम प्रेमी ने पद्मप्रभ का समय विक्रम की बारहवीं का अंत तथा तेरहवीं सदी का आरंभ बताया है तथा शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव का रचनाकाल विक्रम की ११-१२ वीं सदी अनुमान किया है इसलिए आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की बारहवीं सदी के पूर्वार्ध या उत्तरार्धं से बाद का नहीं माना जा
सकता
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आचार्य पद्मनंदि (नं. ५ ) ने "पद्मनंदिपंचविशति" नामक ग्रंथ की रचना की है पद्मनंदि के दीक्षागुरु वीरनंदि तथा शिक्षा गुरु ज्ञानार्णव के कर्त्ता शुभचन्द्राचार्य थे। पद्मनंदिपंचविशति के एकस्वसप्तति अधिकार की टीका विक्रम संवत् ११६३ को उपलब्ध है, अतः पद्मनंदि का समय विक्रम १०७३ से ११६३ के बीच माना गया है।" उन्होंने अपने ग्रंथ में आचार्य अमृतचन्द्र के ग्रंथों से शब्द एवं भावग्रहण कर उसे यत्किंचित् परिवर्तन के साथ प्रस्तुत किया है। उनके ग्रंथ में अमृतचन्द्र के ग्रंथों का प्रभाव पद पद पर दृष्टिगोचर होता है । उदाहरणार्थ अमृतचन्द्रसूरि ने
१. ज्ञानार्णव (धर्म ध्यान का फल ) स ४१, पच ४.
२. नियमसार टीका, गा. ६ पृष्ठ १६८.
३. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृ. ४५८ (शाना व ग्रन्थ करे प्रस्तावना में शुभचन्द्र को राजा मुंज का समकालीन बताया है। मुरंज का समय विक्रम १०५० के लगभग था । अतः अमृतचन्द्र शुभचन्द्र से भी अर्धशतक पूर्व में हुए होगें । इस आधार पर वे दसवीं विक्रम सदी के उत्तरार्ध या ग्रहवीं के पूर्वा के ठहरते हैं । ) ( जाना व पृष्ठ १५ - १६ )
४. जैनेन्द्र सिद्धांतकोश भाग तृतीय, पृष्ठ १० ५. पद्मनंदिपंचविंशतिः, प्र. पृष्ठ ३१
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