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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व और कर्त,त्त्व का समय बारहवी विक्रम सदी का पूर्वार्ष मानने में कोई प्रापत्ति प्रतीत नहीं होती है।
प्राचार्य जयसेन नं. ४ लाइबागड़ संघ की गुबलि के अनुसार भावसेन के शिष्य तथा ब्रह्मसेन के गुरु थे। इनका समय विक्रम संवत् १०५५ से १०७८ है। जयसेन ने धर्मरत्नाकर नामक ग्रंथ की रचना की। धर्मरत्नाकर की एक प्रति ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन ब्यावर के शास्त्रभण्डार में उपलब्ध है। इस प्रति में नथ का रचनाकाल वि० सं० १०५५ दिया है । पण्डित परमानन्द शास्त्री ने एक लेख द्वारा यह सूचित किया था कि जयसेन के धर्मरत्नाकर में आचार्य अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धय पाय के ५६ श्लोक उद्धृत हैं, परन्तु उक्त दोनों प्रथों से मिलान करने पर ज्ञात हुआ कि पुरुषार्थसिद्धय पाय के १२५ श्लोक धर्मरत्नाकर में उद्धत हैं। पू. सि. में कुल श्लोक संख्या २२६ है। इससे स्पष्ट होता है कि जयसेन ने इस ग्रन्थ का आधे से अधिक भाग अपने ग्रन्थ में ज्यों का त्यों उदधुत कर दिया। साथ ही यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि धर्म रत्नाकर की रचना के पूर्व अमृतचन्द्र का यह ग्रन्थ विद्यमान था। उससे भी पहले आचार्य अमृतचन्द्र रहे होंगे। इस आधार से अमृत चन्द्र का समय ग्यारहवीं विक्रम सदी का प्रारम्भ अथवा पूर्वार्ध ही ठहरता है ।
प्राचार्य अमितगति द्वितीय अमितगति प्रथम के प्रशिष्य तथा माघबसेन के शिष्य थे। यह बात उनके ही स्वरचित ग्रन्थ 'सुभाषितरनसंदोह की प्रशस्ति में प्रदत्त मुलि से ज्ञात होता है। आप राजा मुंज के राज्य काल में विद्यमान थे। अापके अन्य ग्रन्थों में धर्मपरोक्षा, सामायिकपाठ तथा श्रावकाचार मुख्य हैं। आपका समय विक्रम संवत् १०५० से १०७८ निश्चित है। अमितगति ने अपना श्रावकाचार धर्मरलाकर के समय वि. १०५५ के लगभग रचा है ।" इस श्रावकाचार पर
१. जनेन्द्र सिद्धांत कोश भाग, २ १ष्ट ३२४ २. जैन साहित्य का इतिहास, भाग २ पृष्ठ १७६ ३. अनेकान्त, वर्ष , पृष्ठ १५३-१७५ तथा २००-२०३ ४. जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, प्रथम भाग, पृष्ठ १३६ ५. जन साहित्य का इतिहास भाग २, पृष्ठ १८०