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जीवन परिचय ]
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प्राचार्य प्रभुतचन्द्र का प्रभाव स्पष्टतः प्रगट होता है । इसके कुछ प्रमाण इस प्रकार है :-- १. प्राचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धय पाय में पांच उदुम्बर
फलों तथा तीन मकारों को त्याज्य बतलाकर अहिंसाणुव्रत की पुष्टि के लिए रात्रिभोजन त्याग पर जोर दिया। प्राचार्य अमितगति ने भी श्रावकाचार में उपयंक्त निरूपण को ज्यों का
त्यों प्रस्तुत किया । २. पुरूषार्थसिद्ध्युपाय में मद्य में बहुत से सजीवों की उत्पत्ति
बतलाने वाले तथा मध के लिए "सरक" शब्द का प्रयोग करने वाले कथन को अमितगति ने भी अपने प्रावकाचार में ग्रहण किया है। ३. अमृतचन्द्र ने "प्राणिधात बिना मांसोत्पत्ति संभव नहीं "बतलाकर
उसके सेवन का निषेध किया। पांच उदुम्बर, तीन मकार के त्यागी को ही जिनधर्म की देशना का पात्र बताया जीवों के घातक हिंसक) की हिंसा करने का भी निषेध किया, सुखी जीव को मारने का भी निषेध किया । असत्य के चार भेद एवं उनके स्वरूप का कथन किया, घन को बाह्य प्राणों की संज्ञा दी तथा निरतिचार ब्रती पुरुषार्थ सिद्धि को पाता है इत्यादि निरूपण किये । इन सभी को अमितगति ने भी ज्यों का त्यों अपनाकर अपने श्रावकाचार में । प्रस्तुत किया। इससे सिद्ध होता है कि अमितगति के समक्ष अमृतचन्द्र की कृति पुरुषार्थसिद्धयपाय विद्यमान थी । अमृतचन्द्र अमितमति से पूर्ववर्ती विद्वात् थे अत: अमृतचन्द्र का समय निस्संदेह विनाम की ग्यारहवीं सदी का प्रारम्भ अथवा दशवी का उत्तरार्द्ध निश्चित होता है।
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१. पुरुषार्थसिद्धय पाय, श्लोक ६१ तथा १२६ २. अमितगतिकृत श्रावकाचार, पञ्चम परिच्छेद पद्य १ तथा ४० से ४२ ३. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, घलोक, ६३ तथा ६४ । ४. अमितगतिकृत थावकाचार, पंचम परिच्छेद, पद्य ६ ५. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ६५, ७४, ८३, १६, १२ से १८ तक, १०३, १६६, ६. अमितगतिकृत श्रावकाचार, पंचम परिच्छेद, पद्य १४, ७३ षष्ठ परिच्छेद,
पद्म ३३, ४०, ४५ से १५ तक, तथा ६१ सप्तम परिच्छेद १७ वां पद्य ।