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दार्शनिक विचार
। ४८१ पूर्व अवस्था संयुक्त द्रव्य उचित बहिरंग साधनों (निमित्तों के सानिध्य के सद्भाव में जो अनेक प्रकार की अवस्थाएं करता है, उनके प्रकट होने में अंतरंग साधन भूत उपादान कारणरूप स्वरूप कर्ता तथा स्वरूप करण की ही सामर्थ्य ही अनुग्रह रूप होती है, अर्थात् स्वरूप कर्ता एवं स्वरूप करण की सामर्थ्य से ही समस्त विभिन्न पर्याय प्रगटती है।' अमृतचन्द्र के उक्त विचारों का समर्थन धवलाकार के उल्लेख से भी होता है कि सर्वत्र ही अंतरंग कारण (उपादानकारण) से ही कार्य की उत्पत्ति होती है. ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि बाह्य कारण (निमित्त कारणों) से कार्य की उत्पत्ति मानने पर शाली के बीज से (धान स जौ की उत्पत्ति का प्रसंग उपस्थित होगा। उपादान कारण की अपेक्षा कार्य को उपादेय कहते हैं :
अभ्यंतर कारण को उपादान कारण कहा है, उससे निष्पन्न कार्य को उपादेश कहा गया : माथान-उपदिय को हो कारण कार्य नाम से अथवा कर्ता-कर्म नाम से भी जाना जाता है। उपादान-उपारय सम्बन्ध द्रव्यार्थिक - निश्चय गय की अपेक्षा एक ही द्रव्य तथा उसकी ही उत्पन्न पर्याय में निर्दिष्ट किया गया है, तथा पर्यायाथिक नय की अपेक्षा एक ही समय की एक ही पर्याय में बताया गया है। पूर्व पर्याय को उपादान तथा उत्तरवर्ती पर्याय को उपादेय कहना, दो पर्यायों में एक ही द्रव्य की होने से) सद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा घटित होता है । निमित्त-उपादान की समन्वित स्थिति :
वास्तव में जब जब कार्य की उत्पत्ति होती है, तब तब उसमें दोनों हेतुओं (बहिरंग - अंतरंग) की विद्यमानता अवश्य होती है. ऐसा वस्तु का स्वभाव है। अन्य प्रकार से मोक्ष की प्राप्ति की विधि सम्भव नहीं है, अतः है जिन्द्र ! ग्राप ऋषियों तथा ज्ञानियों द्वारा बंदनीय हैं। यह बात भी सत्य है कि उभय कारणों निमित्त तथा उपादान) श्री सन्निधि में ही कार्य होन का वस्तु स्वभाव गत नियम होने पर भी ज्ञानियों की दृष्टि बाह्य हेतु से हटकर आभ्यंतर हेतु में ही निहित रहती है, प्राचार्य संमतभद्र
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१. प्रजचनसार गा.१५ को दीका । २. जनेन्द्र मि. कोश भाग, २ पृ. ६२. ३. वृ स्व. स्तोत्र, पद्य, ६५