SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८० ] | आचार्य श्रमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व एक समय में ही कारण तथा कार्य के यभेदपने की सूचना करता है ।" वास्तव में पर्याय की साकीता ही उपवन कारण तथा तत्समय की पर्याय ही कार्य है । उपादान को कारण तथा उपादेय को कार्य कहते हैं । इससे स्पष्ट है कि कारण कार्य या उपादान - उपादेय भाव एक ही द्रव्य की एक ही समयवर्ती एक पर्याय में घटित होता है । इस तरह त्रिकाली उपादान द्रव्य रूप तथा अनंतरपूर्वक्षणवर्ती एवं तत्समय की योग्यता रूप उपादान पर्याय रूप हैं। ये तीन भेद ( उपादान कारण के) आगम में उपलब्ब होते हैं । - उपादान कारण ही कार्य का नियानक होता है :यद्यपि निमित्त कारण पर विचार करते समय यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कार्य की उत्पत्ति का नियामक कारण उपादान ही है, निमित्त नहीं, तथापि यहाँ उक्त विषय में आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक विचारों का विशेष रूप से आकलन किया जा रहा है। कार्य की उत्पत्ति कारण के अनुसार होती है। जैसे जौ पूर्वक होन वाले जो जो वे जो ही होते हैं। यहां कार्य की उत्पत्ति का जो कारण कहा, वह समर्थ कारण ही है। समर्थ कारण उपादान कारण को कहते हैं। अतः उपादान कारण के अनुसार रही कार्य होता है ऐसा प्रागम का वचन है. तथा वस्तु स्वरूप है। वास्तव में वस्तु की शक्तियां पर की अपेक्षा नहीं रखतीं ।" यद्यपि कार्योत्पत्ति में अंतरंग बहिरंग उभय कारणों की सन्निधि पाई जाती है। तथापि बहिरंग कारण अंतरंग कारण की भांति कार्य का नियामक नहीं हो सकता । इस तथ्य को प्रकट करते हुए आ. अमृतचन्द्र ने लिखा है कि ज्ञान के निमित्तपन को प्राप्त हुए अन्य पदार्थ भले ही गतिशील रहें, परन्तु परमार्थ से बाह्य कारण अंतरंग कारण नहीं बन सकता है जिनेन्द्र, आप बुद्धि को प्राप्त अपने ज्ञान तथा वीर्य के विशेष सेवापक या लोकालोक के ज्ञाता तथा केवल ज्ञान स्वरूप हुए हैं।" - ४. ५. "स एवं कार्यकारणभात पर्यामाधिकः । रा. वा. १३३ (जं. सि. की २५५) "कारणानुविधानि कामणीति कृत्वा यवपूर्वका पवा यवा एवेति" समयसार गाथा ६८ की टीका । . . . टीकामा २१ उनका सहर्श कार्यमिति वचनात् । ( ६१ ) समयसार गा ११६ टीका न हि वस्तु मक्तक्तः परमपेक्षते ।" लघु तत्त्व स्फोट, प्र. १८, पच १८.
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy