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दार्शनिक विचार ]
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करना श्रेयस्कर है। यहां श्रेयस्कर उपादान कारण पर भी विचार किया जाता है ।
उपादान - कारण का स्वरूप :
जो कारण स्वयं कार्य रूप परिणमे उसे उपादान - कारण कहते हैं । जैसे घट की उत्पत्ति में मिट्टी उपादन कारण है क्योंकि वह घटरूप स्वयं परिणमती है । ' उपादान - कारण को निजशक्ति भी कहते हैं । उपादान - कारण के पर्यायवाची नाम :
आगम में उपादान कारण को समर्थ कारण मूल हेतु", अंतरंग साधन, मुख्य हेतु कर्ता" इत्यादि नामों से अभिहित किया गया है । उपादान - कारण के भेद :
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उपादान कारण के मुख्य दो भेद हैं शाश्वत (त्रिकाली) उपादान तथा क्षणिक उपादान | द्रव्य तथा गुण स्वभाव को त्रिकाली उपादान तथा विस्वव को कहते हैं । त्रिकाली उपादान यह बताता है कि कार्य की उत्पत्ति द्रव्य के स्वाश्रय से होती पर से नहीं । पृथक् सत्ताकद्रव्य तो निमित्त मात्र हो सकता है। क्षणिक उपादान के भी दो प्रकार हैं: प्रथम तो अनंतर पूर्वक्षणवर्ती पर्याय रूप उपादान तथा द्वितीय, तत्समय की योग्यता युक्त पर्याय रूप क्षणिक उपादान | इनमें प्रथम प्रकार इस नियम की घोषणा करता है कि अनंतरपूर्वेक्षणवर्ती पर्याय ( अर्थात् कार्यं प्रकट होने से एक समय पूर्व वाली पर्याय का व्यय ही उत्तरक्षणवर्ती पर्याय रूप कार्योत्पत्ति का उपादान कारण है। द्वितीय प्रकार
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जै. सि. प्र. ४० प्रश्नोत्तर
- उपादान निजशक्ति है जि को यहीं स्वभाव" (निमित्त उपादान संवाद
पद्य नं ३)
घरला - १२/४ - जै. सि. को भाग २. २४.
वृ. स्वयंभुस्तोत्र - पद्म ६०
प्रवचनसार गा. टीका ६५.
पंचास्तिकाय गा. टी. मह
यः परिणमति सः कर्ता" (स. सा. क., ५१ ) असही-५८ में पद्य की टीका ।
वागम स्तोष पद्य ५ तथा मष्टसहस्त्रो पृ. ११
- नियतपूर्वक्षणतत्व कारणलक्षणम् ।
नियतोच रक्षगुवतित्वं कार्यं लक्षणम् ।" (जै. नि. को, भाग २ पु. ५४ . )