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________________ ४७८ । । प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्त्व इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि शरीर तथा अपने अपने विषय सहित पाँचो इन्द्रियाँ अात्मा के ज्ञान और सुख को उत्पन्न करने में अकिञ्चित्कर हैं।' निमिनों की अकिञ्चित्करता का कारण प्राचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट लिखा है कि समस्त द्रव्यों का अन्य द्रव्यों के साथ उत्पाद्य-उत्पादक भाव का प्रभाव है २ अतः निमित्त, उपादान की पर्याय को उत्पन्न कर यह कदापि संभव नहीं है । अस्तु । निमिस में बाह्य हेतुता की स्वीकृति : यद्यपि सम त ही कार्य उपादान गत योग्यता से ही सम्पन्न होते हैं, निमितों का कांपना उनमें असंभव है, तथापि निमित्तों की मनिधि का निषेध भी सम्भव नहीं है। प्रत्येक कार्य या उपादान का निमित्त अवश्य होता है, परन्तु निमित्त, उपादाम का कर्ता नहीं होता। यदि एकांत रूप से निमिनों को नहीं स्वीकारा जावे तो भी अद्वैत एकांत का प्रसंग उपस्थित होगा। साथ ही श्रात्मा में होने वाले रागादि भावों के निमित्तों का निषेध किया जाने पर रागादि भाव आत्मा के स्वभाव बन जायेंगे तथा स्वभाव का अभाव न होने से रागादि का भी कभी भावना होगा, ना रागादि की उत्पत्ति में प-द्रव्य की निमित्तता नत्रश्य स्वीकृत की गई है तथा कतानि का निधि किया गया है। अमृतचन्द्र ने इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हु लिखा है कि जिस प्रकार सूर्यकांतमणि स्वयं के पात्रय मे अग्निरूप नहीं परिणमती, उसके अग्निरूप परिणमन में परसा रूप निमित्त प्रवक्ष्य है, उसी प्रकार प्रात्मा भी स्वयं ही स्वयं को रागादि भावों का निमित्त नहीं होता है, उन रागादि को उत्पत्ति में परसंग रूप निमित्त अवश्य होता है - ऐसा बस्तु का स्वभाव है। इस प्रकार यह फलित हना कि रागादि की उत्पत्ति स्वाक्षय से, पराश्रय के काल में अथवा पराश्रित दृष्टि से ही होती है, अतः रागादि के अभाव का एकमात्र उपाय पराश्रित दृष्टि और पराश्रय का त्याग करना और स्वाश्रित दृष्टि या स्वाश्रयपना प्रगट करना ही है । संसार की विद्यमानता का कारण पराश्रित दृष्टि ही है तथा संसार मे मुक्ति - शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति का कारण स्वाचित दृष्टि है। स्वाश्रित दृष्टि को उपादानाधीन तथा पराश्रित दृष्टि को निमित्ताधीन इष्टि भी कहते हैं अतः निमित्त का पररूपपना जानकर उसका आश्रय छोड़ना और उपादान का स्वरूपपना जानकर उसका अवलम्बन १. पंचाध्यायो, अ. २ प ३५६. २. ममय सारगाथा ३०८ से ३११ टीका । ३. समयसार कलम, १७५.
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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