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| श्राचार्य अमूलचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
आकर्षण विद्यमान है । यहाँ एक स्थल उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें लयात्मकता, ध्वन्यात्मकता, विषयप्रकाशिती भाग तथा अर्थ की गम्भीरता आदि विशेषताएँ युगपत् प्रस्फुटित हो उठती हैं यथा आत्मज्ञान के होने तथा प्रस्रवों से निर्वृति होने का समकालपना समयपना सिद्ध करते हुए, आत्मा और आम्रवों के स्वरूप का तुलनात्मक स्पष्ट निदर्शन हुए करते हुए वे लिखते हैं
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"जतुपादपवध्यघातक स्वभावत्वाज्जो व निबद्धाः स्वन्वासवाः, पुनरविरुद्ध स्वभावत्वाभावाज्जीव एव । अपस्माररयवद्वर्धमान हीयमानत्वाद गः खल्वाखवाः, अ, वश्चिन्मात्रो जीव एव । शोतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जृम्भमाणत्वादनित्याः सवासवाः नित्यो विज्ञानघनस्वभावो जीव एव । बीजनिमक्षिक्षणक्षीयमाणदाणराम रसंस्कारवत्त्रातुमशक्यत्वादशरणाः खवास्रवाः, मशरणः स्वयं गुप्तः सहजचिच्छक्तिर्जीव एव । नित्यमेवाकुलभावत्वादुःखानि स्वन्वास्त्रवाः, अदुःखं नित्यमेवानाकुलस्वभावोजीव एव । प्रायत्यामाकुलत्वोत्पादकस्य पुद्गलपरिणामस्य हेतुत्वादुःखफला स्वन्वास्रवाः, श्रदुःखफलः सकलस्यापि मुद्गलपरिणामस्याहेतुत्वाज्जीव एव । इति विकल्पानंतरमेव शिथिलतकर्मविपाको विघटितघनघटतदिगाभोग इव निरर्गलप्रसरः सहजविजृम्भमाणचिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानचनस्वभावो भवति तथा तथा स्रवेभ्यो निवर्तते यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति । तावद्विधानघनस्वभावो भवति यावत्सम्यगात्रत्रेभ्यो निवर्तते तावदात्रवेभ्यश्च निवर्तते यावत्सम्यग्विज्ञानघनस्वभावो भवतीति ज्ञानास्रवनिवृत्योः समकालन्यम् ।
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सारगाथा ७४ की टोकन अर्थ वृक्ष और लाख की भांति व्य पात भावना होने से अव जी के मात्र बन्धे हुए हैं, किन्तु अनिलस्वभाव का अभाव होने से ये जीव ही नहीं है! मृगी के वेग की बढ़ते होने में आव अब हैं, चैतन्यमात्र जीव ही ध्रुव है । शीतदाहज्वर के आयण को भांति अनुक्रम से उत्पन्न होते हुए होने में स अनित्य हैं, विज्ञानघनस्य भावी जीव ही नित्य है। कामसंवन में वीर्य जाने के क्षण से दारुण काम का संस्कार नष्ट हो जाना है. उसी में रोका जाना सम्भव न होने से रोका नही जानता है। इस कमय छूट जाने पर उसी क्षण शास्त्र नाश को प्राप्त होता है, इसे को से रोका जाना सम्भव न होने से के आ जाने होने से आलव जाण हैं. स्वयंरक्षित सहज चित्शक्तिरूप जीव ही शरणसहित है। मदा अकुल स्वभाव वाले होने से आसव दुःखफलरूप है. गदा निराकुल स्वभा जीव ही अदुःखम्प अर्थात् मुखरूप है। आगामी काल में आकुलता को पन्न करने वाले ऐसे पुन्नपरिणाम के हेतु होने से अन दुःखरूप हैं । जीव
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