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________________ कृतियाँ । [ ३८६ उपरोक्त अंश यद्यपि समासबहुलता के कारण पढ़ने तथा समझने में क्लिष्ट प्रतीत होता है, तथापि समासविग्रह करने पर उसका अर्थ अत्यन्त सरल, सुगम एवं सुस्पष्ट हो जाता है । प्रागे अमृचन्द्र की सामासिक, क्लिष्ट एवं दुर्बोत्र भाषा का उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है । उक्त अश अलंकार सौंदर्य से समन्वित है तथा प्रवाहपूर्ण, गम्भीर अर्थगरिमा को भी व्यक्त करता है । इसमें मोक्षतत्व का साधनतत्व कौन है, यह स्पष्ट किया गया है यथा - "अनेकांतकलितसकलज्ञातृजेयतत्वयथास्थितस्वरूपपाण्डित्यशोग्डा: सन्तः समस्त बहिरंगान्तरंगसंगति परित्यागविविक्तान्तश्चकचकायमानानन्तयक्ति चैतन्य भास्वरात्मतत्त्व स्वरूपा: स्वरूपगुप्तमुषप्तक पान्तस्तत्त्व तितया विषयेषु मनागप्यासक्तिमनासादयन्तः समस्तानुभाववन्तो भगवन्तः शुद्धा एवासंसार घटिन विकट कर्मकबाट विघटनपटीयसाध्यावसायेन प्रकदीक्रियमाणावदाना मोक्षतत्वसाधनतत्त्वमवबुध्यताम् ।' इस प्रकार स्पष्ट है कि अमृतचन्द्र की भाषा में भले ही समासबहुलता एवं क्लिष्टता हो परन्तु उसमें एक लयात्मक प्रवाह एवं ध्वन्यात्मक एह परद्रव्य नहीं, इस परदव्य' का में नहीं, मरा ही मैं हूँ, परदन्म का ही परद्रव्य है, इस परद्रव्य का मैं पहले नहीं था, वह परद्रव्य मेरा पहले नहीं था, मेरा मैं पहले था, परद्रव्य' मा परद्रव्य ही पहले था। वह परद्रव्य मेरा भविष्य में नहीं होगा, इस परद्रव्य का में भविष्य में नहीं होकगा, मैं अपना हीभविष्य में होऊँगा, इस परदव्य का यह परद्रव्य हो भविष्य में होगा" ऐसा जो स्वदव्म में ही सत्यार्थ आत्म-विकल्प करता है, यही प्रतिबुद्धि-शानी का लक्षण है। इससे झानी पहिचाना जाता है ।। प्रवचनसार गाया २७६ की टीकाः-अर्थ – अनेकांन्न के द्वाग शान सकल ज्ञातृतत्त्व और शेयतत्त्व को यथावस्थित स्वरूप में जो प्रवीण है, अन्तरङ्ग में चकित होते हुए अनन्न शक्तिवाले चैतन्य से तेजस्वी आत्मनन्ध के स्वरूप को गिनने समस्त बहिरङ्ग तथा अन्तरङ्ग संगति के परित्याग से भिन्न किया हैं और अन्तःतत्त्व की बत्ति (आत्मा की परिणति) स्वरूप गुप्त तथा सुषप्त (गोरे दृग के समान) ममान (शांत) होने से किंचित् भी विषयों में जो आसक्ति को प्राप्त नहीं होते, एमे सकालमहिमावान् भगवन्तशुद्धशुद्धोपयोगी) हैं। उन्हें ही मोक्षतत्व का साधनमान्य जानने, क्योंकि वे अनादि संमार में रनिन वन्द रहे हग विकट कर्मकपाद को तोड़ने के लिए अति उग्र प्रयत्न से परामम प्रकट कर रहे हैं ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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