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________________ कृतियाँ 1 | ३६१ इसी तरह उनकी भाषा में कहीं कहीं विपुलकाय वाक्यों तथा कहीं कहीं लघुकायवाक्यों का सुन्दर सहजप्रवाहमयी व प्रभावोत्पादक प्रयोग हुआ हैं | संस्कृत गद्य टीका के साथ कहीं कहीं प्राकृत गाथाएँ उदाहरण के रूप में उपलब्ध होती हैं । उक्त दीर्घवाक्यों तथा प्राकृत गाथा के प्रयोग का एक उदाहरण प्रस्तुत है। इस उदाहरण में केवल दो विशाल वाक्यों में निश्चय तथा व्यवहार नय की उपयोगिता प्रदर्शित की गई है। तथा पूर्वायक्त एक प्राकृत पद्य द्वारा अपने मित्राय की पुष्टि की गई है यथा- "ये खलु पर्यन्त पाक सीर्णजात्य कार्त्तस्वरस्थानीयं परमं भावमनुभवन्ति तेषां प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपम्परापच्यमान कार्त स्वरानुभवस्थानीयापरमभावानुभवनशून्यत्वाच्छुद्धद्रव्यादेशितथा समुद्योतितास्खलिते कस्त्रभावकभावः शुद्धनय एवोपरितनकप्रतिर्वाणका स्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः प्रयोजनवान् । ये तु प्रथम द्वितीयाद्यनेक पाकपरम्परापच्यमान कार्तस्वरस्थानीयमपरं भावमनुभवन्ति तेषां पर्यन्तपाकोसीर्ण जात्यकार्तस्वरस्थानीय परमभावानुभवनशून्यत्वादशुद्धद्रव्यादेशित यो पदर्शित प्रतिविशिष्टक भावानेकभावो व्यवहारतयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान् तीर्थतीर्थफलयोरित्यमेत्र व्यवस्थितत्वात् । उक्तं जई जिणमयं पवज्जह ता मा व्यवहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिन्जर तित्थं श्रणेण उण तच्चं ॥ ५ १. ही समय गलगरिणामों का हेतु होने में अदुःखरूप है। इस प्रकार आम्रवीं तथा जीव का भेदविज्ञान होते हो (तत्काल ) कर्म विपाक शिथिल - आरमा बादल समूह रचना के होने से प्रगट दिशाविस्तार वी "भांति अमर्याद विस्तार वाला सहजरूप से विकास को प्राप्त विज्ञानघनस्वभाव (विरक्तिमय ) ज्यों-ज्यों होता जाता है, त्यों-त्यों आसनों से निव ́न होता जाता है, और ज्यों-ज्यों आत्रों से निवृत्त होता जाता त्यों-त्यों विज्ञानघनस्वभाव होना जाना है, क्योंकि मान तथ नै आस्रवनिवृत्ति का एककाल है । wld - " Tab समयम र गाथा १२ को टीका:- अर्थ - "जो पुरुष अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्ध स्वर्ण के समान उत्कुष्ट भाव का अनुभव करते हैं. उन्हें प्रथम, द्वितीय आदि पाकों को परम्परा से पच्यमान अशुद्ध स्वर्ण के समान अनुत्कृष्ट मध्यमभाव का अनुभव नहीं होता, इसलिए शुद्धद्रव्य की निरूपण करते वाला होने से "अवचित अण्ड एक स्वभाव रूप एक भाव को प्रकाशित
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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