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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृत्व
प्राचार्य अमृतचन्द्र की दीर्घवाक्यमयी भाषा के समान ही लघुवाक्यमयी भाषा भी प्रभावोत्पादक, तारतम्यमयी, सहजबोधगम्य तथा सालंकृत है। उदाहरण के लिए वे एक स्थल पर जीव के भावकर्म तथा पुद्गल द्रव्यकर्म को परम्परा का निदर्शन कराते हुए लिखते हैं -
"इह हि संसारिणो जीवादनादिबंधनोपाधिवशेन स्निग्धः परिणामो भवति । परिणामात पुन पनगलपरिणामानातं कर्म । कर्मणो नारकादिगतिषु गतिः । गत्यधिगमनाइहः देहादिन्द्रियाणि । इंद्रियेभ्यो विषयग्रहणम् । विषयग्रहणाद्रागद्वेषो । रागद्वेषाम्यां पुनः स्निग्धः परिणामः । परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्कं कर्म । कर्मणः पुनर्नारकादिगतिषुः गतिः । गत्यधिगमनात्पुनदहः । देहातुनरिन्द्रियाणि । इन्द्रियेभ्यः पुनविषयग्रहणम् । विषयग्रहणान्युनः रागद्वेषौ। रागद्वेषाभ्यां पुनरपि स्निग्धपरिणामः । एवमिदमन्योन्य कार्यकारणभूतजीवपुद्गलपरिणामात्मकं कर्मजालं संसारचक्र जीवस्यानाद्य निधनं अनादिसनिधनं वा चक्रवत्परिवर्तते। तदत्र पृदगलपरिणाम निमितो जीवपरिणामो जीवपरिणाम निमित्तः पुद्गलपरिणामश्चवक्ष्यमाणपदार्थबीजत्वेन संधारणीय इति।"
शिणा है, ऐसा शुद्धता की सबसे ऊपर की एक प्रतिषणिका (स्वर्णसमान) होने से, जानने में आता हुआ प्रयोजनवान् है । परन्तु जो पुरुष प्रथम-द्वितीय आदि अनेक पाकों (तावों) की परम्परा से पच्यमान अशुद्धस्वर्ण के समान जो अनुत्कृष्ट-मध्यम भाव का अनुभव करते हैं, उन्हें अन्तिम ताव से उतरे हुए शुद्धस्वर्ण के समान उत्कृष्ट भात्र का अनुभव नहीं होता. इसलिए अशुद्धद्रव्य का निरूपण करने वाला होने से – भिन्न-भिन्न एक एक भावस्वरूप अनेक भाव दिम्बाये हैं. ऐसा स्थान हारनग. विचित्र अनेक वर्णमाला को सामान होन मे. जानने में आता हुआ प्रयोजवान है, क्योंकि तीर्थ और नीर्थ के फल की व्यवस्थिति ऐसी ही है । कहा भी है - "जो जिनमत को प्रवताना वाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनय के बिना जीर्थ -- व्यवहारमार्ग का तथा निश्चय नय के बिना तत्न का नाम हो जायगा ।" पंचाशिफाय गाथा १२८ से १३० तक को दीक्राः- अर्थ - "इस जगत् में संसारीजी के अनादि बंधन रूप उपाधि के कारण स्निग्ध परिणाम होता है । परिणाम से पुन: पुद्गलपरिणाम रूप कर्म से नारकादिगतियों में गमन होता है। गनि की प्राप्ति मे देह प्राप्त से देह प्राप्त होती है। देह से इन्द्रियाँ,