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________________ कृतियाँ 1 | ३६३ ( याचा अमृतचन्द्र की टीकात्रों में प्रयुक्त भाषा में जहाँ प्रौढ़ता, विद्वत्ता, चारुता, आलंकारिक सुन्दरता, विभिन्न भाषाशैलियों आदि की दृष्टि से एक और साम्य प्रतीत होता है, वहीं दूसरी ओर कई बातों में वैषम्य भी पाया जाता है । बाणभट्ट की भाषा में कृत्रिमता काल्पनिकता तथा क्लिष्टता के दर्शन प्रचुरमात्रा में होते हैं जबकि प्राचार्य अमृचन्द्र की भाषा में सहजता, यथार्थता तथा सुबोधता की उपलब्धि होती है । बाणभट्ट की भाषा पाठकों को कन्पनालोक की इन्द्रजालवत् क्षणिक विविधरंगी झाँकियों से रंजायमान कर लेती है जबकि अमृतचन्द्र की भाषा पाठक को अध्यात्मलोक की यथार्थ तास्विक अनुभूतियों से श्रात्मदर्शन तथा स्थाई आत्मीय आनंदामृत की उपलब्धि कराती है। उनकी भाषा भावानुगामिनी है । सर्वत्र भावानुकुल भाषा तथा भाषानुकूल छंद प्रयोग, शैला प्रयोग आदि सहज ही अभिव्यक्त हुए हैं। जहाँ उन्हें संक्षेप में विस्तृत तथ्य प्रदर्शन करना इष्ट लगा वहाँ उन्होंने सूत्रात्मक भाषा का प्रयोग किया है किन्तु जहाँ स्पष्टीकरण करना इष्ट हुआ वहाँ भाषात्मक पुनरावृत्ति करने में उन्हें संकोच नहीं हुआ है । सूत्रात्मक भाषा में कथन करते हुए वे लिखते हैं - त्रे एवमेव परिवर्तन समजेलको कर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुघ्राणरसन स्पर्श सूत्राणि षोडश व्यारूपेयानि । अनयर दिशान्यान्यप्यहानि । "" १. इन्द्रियों से विषय ग्रहण विवष ग्रहण से रंगा-द्वेष, राग-द्वेष से पुनः स्निग्ध परिणाम होता है । परिणाम से पुनः पुद्गल परिणाममय कर्म कर्म से पुनः नारकादि गतियों में गमन गतिगमन से पुनः देहप्राप्ति, देह से पुनः इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से पुनः विषयग्रहण, विषयग्रहण से पुनः रागद्वेष, रागद्वेष से पुनः स्निग्ध परिणाम होता है । इस प्रकार यह परस्पर कार्य कारणपना जीव तथा पुद्गल के परिणाममय मंजाल संसारचक्र में जीव के श्रनादि अनंत अथवा अनादि मांत चक्र के समान होता है। इस प्रकार यहां पुद्गल परिणाम के निमित्त से जीन के परिणम तथा जीवपरिणाम के निमित्त से पुद्गल के परिणाम पूर्वोक्त (पुण्यादि सात) पदार्थों के बीज रूप से समझना चाहिए ।" समयसार गा. टीका ३३ अर्थ "यहाँ इसी प्रकार ( पूर्वकथनानुसार ) "मोह" पद को बदलकर राग-द्वेष, फोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्स, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घाण, रसना, स्पर्धा इन पदों को रखभर १६ सूत्रों का व्याख्यान करना और विचार लेना । "इसी प्रकार मा. ६४, १३६ उल्लेखनीय है" । इसी प्रकार से अन्य मी तथा २१० की टीका भी —
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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