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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
भाषात्मक पुनरावृत्ति के लिए निम्न उदाहरण प्रस्तुत है "यः कृष्णो हरितः पीतो रक्तः श्वेतो वा वर्णः स सर्वोपि नास्ति जीवस्य पुद्गलपरिणाममयल्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्" ........... "उक्त अंश में प्रयुक्त "पुद्गलपरिणामयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्" इस पद का प्रयोग टीका में यागे २८ बार किया गया है। इसी प्रकार एक स्थल पर समस्त कर्मफल सन्यास की भावना को नचाते हुए लिखा है - "नाहं मतिज्ञानावरणीयकर्मफलं भूजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये । नाहं श्रुतज्ञानावरणीय कर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्म नमेव संचेतये ।" इसी प्रकार मलिशानावरणीय के स्थान पर श्रुतज्ञानावरणीय तथा अन्य १४८ कर्म प्रकृतियों के नाम लिखकर शेष पंक्ति की १४५ बार पुनरावृत्ति की गई है ।
आचार्य प्रमतचन्द्र की भाषा, चाहे वह गद्य रूप हो या पद्यरूप हो, अपने चरम उत्कर्ष के साथ भाषा वैशिष्ट्यों से सुरभित, अलंकारों से मण्डित, शब्द विन्यारा एवं वाक्य संरचना में असाधारण, सतर्क, सशक्त, सोदाहरण आदि अनेक विशेषतानों से समन्वित होकर साहित्यगगन में अपनी अनुपम छटा बिखेरती हुई अभिव्यक्त हुई है। उसमें पर्यायवाची शब्दों की बहुलता है, अनेकार्थवाची शब्दों का प्रयोग है । बह अप्रचलित विलष्ट शब्दावली से युक्त है। अनेक प्रकार के प्रत्यय, उपसर्ग, अव्यय, धातुप्रयोग, कारक प्रयोग आदि से श्रेष्ठता एवं प्रौढ़ता को प्राप्त है । इस तरह स्पष्ट है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र की भाषा अपने युग के साहित्यिक उत्कर्ष की प्रतीक है, साथ ही साहित्यिक विशेषतानों से सुसमृद्ध है। शैली :
___ प्राचार्य अमृतचन्द्र के साहित्यानुशीलन से ज्ञात होता है कि उन्होंन अपनी गद्य तथा पद्यमयी रचनाओं में विभिन्न साहित्यिक शैलियों का प्रयोग किया है 1 अनेक प्रकार की शैलियों के दर्शन हमें प्रायः उनके गद्य साहित्य में होते हैं । उनका पद्य काव्य भी शैलियों के प्रयोग से अछूता नहीं रहा है।
१. समयमार गा. टीका ५५ - अर्थ - जो काला हरा पीला, लाल और सफेद
वर्ण है. ह समस्त ही जीव का नहीं है क्योंकि यह पुद्गलदच्य का परिणाम
स्वरूप होने से अपनी अनुभूति स भिन्न है। २. समयसार, गा. ३८७ से ३८६ तक की टीका - "अर्थ - '' मैं (जानी होने
स) मतिज्ञानावरणीय कर्म के फल को नहीं भोगता, चैतन्य स्वरूप प्रात्मा का हो सचेतन करता हूँ।
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