________________
२६० ]
| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
विभिन्न रस रूप स्वयमेव परिणमता है उसी प्रकार राग के सद्भाव में द्रव्यकर्म स्वयमेव बंघ को प्राप्त होता है । इस प्रकार आसवस्वरूप के निरूपण के साथ उक्त अधिकार समाप्त होता है ।" आखव भी रंगभूमि से बाहर चला जाता है ।
६. संवराधिकार - इस अधिकार में सुंदर रूप पात्र का प्रवेश होता है | आचार्य सकल कर्मों का संबर क रने का उत्कृष्ट उपाय भेदविज्ञान बताकर उसकी प्रशंसा करते हैं । उपयोग, उपयोग में है। उपयोग क्रोधादि में नहीं है। उपयोग क्रोधादि रूप नहीं है। मेद-विज्ञान से ही शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है । जिस प्रकार अग्नि से तप्त स्वर्ण अपना स्वर्ण भाव का त्याग नहीं करता, उसी प्रकार कर्मोदय से तप्त ज्ञानी अपना ज्ञानस्वभाव नहीं छोड़ता । शुद्धात्मा की उपलब्धि से ही संवर होता है । संकट काहुए लिखा है कि राग-द्व ेष मूलक शुभाशुभ योग में प्रबर्तमान आत्मा दृढतर भेद-विज्ञान के बल से आत्मा को, आत्मा के द्वारा रोककर शुद्ध दर्शन ज्ञान स्वरूप में स्थिर होता है तथा परद्रव्यों की इच्छा से रहित होकर, सर्वसंग से मुक्त होकर आत्मा को ध्याता हुआ, शीघ्र ही आत्मा प्राप्त करता है। संवर प्रगट होने का क्रम इस प्रकार है कि पहले जो भेद-विज्ञान के बल से निजमहिमा में लीन होते हैं, वे शुद्धात्म तत्व की उपलब्धि करते हैं, शुद्धात्मा की उपलब्धि होने पर अक्षय, कर्ममोक्ष होता है । इस प्रकार संवर भी अपना स्वरूप दिखाकर रंगभूमि से चला जाता है और यह बंदा भी यहीं समाप्त होता है ।
७. निर्जराधिकार इस अधिकार में निर्जरा रूप पात्र का प्रवेश होता है। प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट किया है कि बिरागी के उपभोग निर्जरा के ही कारण हैं, क्योंकि उसके रागादि का अभाव होता है । मिथ्यादृष्टि के रागादि भाव के सद्भाव के कारण, पूर्व कर्मोदय निर्जरा को प्राप्त होने पर भी नवीन भाव-बंध के कारण होते हैं, भाव-निर्जरा के कारण नहीं होते । ज्ञानी को वहीं कर्मोदय आगामी ( नवोन) बंध किये बिना निर्जरित होते हैं, अतः उसे ही सच्ची निर्जरा कही है। आगे ज्ञान व वैराग्य की सामर्थ्य दिखाते हुए लिखा है कि जैसे वैध मरण के कारण
१. आत्मख्याति टीका, गाथा १७६ से १८० लक ।
२. बही गाया १८१ से १९२ तक ।