SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतियाँ ] [ २६१ रूप विष को भोगता हुआ भी, अमोघ विद्याशक्ति सामर्थ्य से विष-शक्ति को अवरुद्ध करता हआ, मरण को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) मिथ्यादृष्टि को नवीन बंध के कारण होने वाले पुद्गल. कर्मोदय को भोगता हुआ भी, अमोघ ज्ञान की सामर्थ्य द्वारा रागादिभावों का अभाव तथा कर्मोदय की शक्ति को अवरुद्ध करता हमा, बंध को प्राप्त नहीं होता।' सम्यग्दृष्टि विशेष रूप से स्व व पर को जानता है। अतः वह ज्ञान एवं वैराग्य सम्पन्न होता है। जिसके रागादि अज्ञानमय भावों का लेशमात्र भी सदभाव होता है वह ज्ञानमय भावों के अभाव के कारण आत्मा को नहीं जानता है. इ.लिए वा मिथ्यादि । . ही वह श्रतकेवली जैसा समस्त आगमों को पढ़ा हुआ हो। आगे परमार्थ पद वाले आत्मा का स्वरूप बताते हये उसे ज्ञानमय ही बताया है। उस ज्ञानमय पद के प्रवलंबन से निजपद की प्राप्ति, भ्रांति का मास, आत्मा का लाभ, अनात्मा का परिहार होता है तथा रागद्वेषमोहादि की उत्पत्ति, नवीनकर्मास्रव, व नवीन कर्मबंध नहीं होता, पूर्व बद्ध कौ की निर्जरा तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। ज्ञानी पर-द्रव्य को ग्रहण नहीं करता क्योंकि जो जिसका स्वभाव है बह जसका "स्व" है और वह उस स्व" भाव का स्वामी है ऐसी तीक्ष्णदष्टि से ज्ञानी पर-द्रव्य का परिग्रहण नहीं करता, अत: में भी पर-द्रव्य का ग्रहण नहीं करूगा, उसका कुछ भी हो । जिसके इनछा है उसके परिग्रह है, जिसके इच्छा नहीं उसके परिग्रह नहीं है। ज्ञानी के धर्म, अधर्म आदि का परिग्रह नहीं है। ज्ञानी आहार व पान का ज्ञाता है, ग्राहक नहीं। इस तरह ज्ञानी के सर्व पर-द्रव्यों का परिग्रह नही, उनका ज्ञाताना है। ज्ञानी तोनों काल में कर्मोदय का भोक्ता नहीं हैं। बह तो ज्ञायकस्वभावरूप, नित्य टोत्कीर्ण तथा धब है, तथा समस्त वेद्य-वेदक भाव, विकारी, अनित्य, चलायमान तथा अध्र व हैं इसलिए ज्ञानी उन सभी भाबा की कांक्षा नहीं करता। वह सप्तभयों से रहित निःशंक होता है। उसे इस-लोक, पर-लोक, वेदना, अरक्षा, अगृप्ति, मरण तथा अकस्मात् भय नहीं होते । उसके शंका, कांक्षा, १. प्रात्मन्यानि टीका गाथा १९३ मे १९८ तक । २. ब्रही, गाथा १९६-२७० तक। ३. वही, गाया २०१ से २०६ नक । ४. वहीं, गाना 21 ग २२७ तन ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy