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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व विचिकित्सा (ग्लानि), मूढदृष्टि जीवशक्ति की दुर्बलता (अनुपमूहन), मार्गच्युत, अप्रीति (अवात्सल्य ), तथा ज्ञानप्रभावना के अप्रकर्ष आदि अष्ट-दोष-जन्य बंध नहीं होता है, क्योंकि वह नि:शंकित, निकांक्षित, निवि चिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन अष्टगुणों से सम्पन्न होता है । अतः उसके निर्जरा ही होती है, बंध नहीं । इस प्रकार के निरूपण के साथ यह पात्र ("निर्जरा'') भी रंगभूमि से चला जाता है, और यहां यह अधिकार समाप्त होता है।'
८. बन्धाधिकार - यहां रंगमंच पर बंधरूप स्वांग का प्रवेश होता है । बंध के स्वरूप पर प्रकाश डालते हार लेखक कहते हैं कि रागषमोह ही बंध के कारण हैं । जिस प्रकार शरीर में तेल मर्दन करके कोई व्यक्ति कई प्रकार के वृक्षादि छिन्न-भिन्न करे, उससे रजत्राण उड़कर उस व्यक्ति के शरीर से त्रिपकेंगे, जिसका कारण चिकनाई ही होगा । इसी प्रकार रागादि परिणाम स्निग्ध रूप हैं तथा मन, वचन व काय के योग, क्रिया रूप हैं, योगों के कंपन से कमस्रिव होता है परन्तु रागादि की स्निग्धता से वे कर्म बंध को प्राप्त होते हैं । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी उपयोग और रागादि का भेद जानकर रागादि का स्वामी नहीं होना, इसलिये उसे बन्ध नहीं होता । प्राचार्य प्रागे अज्ञान को ही बंध का कारण निरूपित करते हये लिखते हैं कि जो यह मानता है कि वह पर जीव को मार या बचा सकता है - यह मान्यता अज्ञानमय है । इन अध्यवसानों को अज्ञानरूप इसलिये कहा है कि किसी भी प्राणी का आय क्षय हुये बिना मरण सम्भव नहीं है. प्राय शेष बिना जिलाना संभव नहीं तथा आय का लेना या देना या हीनाधिक करना किसी के हाथ की बात नहीं, अत: मारने का भावमात्र करना अज्ञान है। इसी प्रकार पर को दुखी करना या सुखी करना भी किसो दूसरे के आधीन नहीं है अतः सुखी दुखी करने की मान्यता भी अज्ञान ही है । अमृतचन्द्र उस अज्ञानी के लिए मिथ्यादष्टि, अात्मघाती आदि संज्ञानों का प्रयोग करते हैं। यहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि प्रध्यबसान ही बंध का कारण होने से हिंसा आदि का अध्यवसाय हिंसा है । अध्यवसाय ही पुण्य तथा पाप बंध के कारण हैं । इसी प्रकार - . १. आत्मख्थाति टीका, गाथा २२८ मे २३६ वक । २. बही, गाथा २३७ से २४६ नक। ३. वही, गाथा २४६ मे २६१ तक ।