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________________ कृतियाँ ] [ २६३ असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह भो अध्यवसाय ही हैं, व पापबंध के कारण हैं । बाह्य बस्तुएं बंध को कारण नहीं हैं । अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करने में असमर्थ होने से मिथ्या हैं । अध्यबसान रहित मुनिराज को मात्र क्रिया से बंध नहीं होता। बुद्धि व्यवसाय, अध्यवसान, मति, विज्ञान, चित्त, भाव तथा परिणाम ये सभी समानार्थी हैं।' आगे नयों के स्वरूप तथा परस्पर सम्बन्ध का निरूपण किया गया है। वहां निश्चय-नय को आत्माश्रित तथा व्यवहार-नय को पराश्रित कहा गया है तथा दोनों में निश्चय को प्रनिषेधक तथा व्यवहार को प्रतिषेध्य निरूपित किया गया है । व्रत, शील, संयमादि का सेवन करता हुआ भी अभव्यजीव अशानी तथा मिथ्यादृष्टि है। व्यवहार-नय से आचारांगादि को शास्त्रज्ञान, जोवादि तत्त्व को दर्शन, तथा षटकाय के जीवों की दया पालन को चारित्र कहा है , परन्तु परमार्थ-नय (निश्चय-नय) से ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र आदि सभी आत्मा ही है । आत्मा में रागादि निजस्वभाव के अवलम्बन से कभी नहीं होते, अपितु उनके उत्पन्न होने में परसंयोग ही निमित्त बनता है। अन्त में आत्मा को रागादि का अकारक सिद्ध करते हुए लिखा है कि यदि ऐसा न हो तो अप्रतिमाम प्य और अप्रत्याख्यान की द्विविधता नहीं बन सकेगी । अर्थात् दूध अतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान का निमित्तपना और भाव अप्रतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान का नैमित्तिकपना सूघटित है। इस प्रकार बंध भी रंगभूमि से चला जाता है। ६. मोक्षाधिकार - इस अधिकार के प्रारंभ में मोक्ष रूप स्वांग का प्रवेश होता है । आत्मा तथा बंघ को पृथक कर देना मोक्ष है । कुछ लोगों की मान्यता है कि बंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र मुक्ति का कारण है, इस मान्यता का खण्डन करते हुये लिखा है कि जिस प्रकार बेड़ी से बंधे हुये जीव को बंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र बंधन से मुक्ति का कारण नहीं होता उसी प्रकार कर्म से बंधे हुए जीव को भी कर्मबंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र कर्मबंधन से मुक्त होने का कारण नहीं है । बंध का विचार करते रहने से भी बंध नहीं करता क्योंकि उक्त विचार तो शुभध्यान मात्र है तथा शुभपरिणाम से कदापि मोक्ष नहीं होता। मोक्ष का कारण एक मात्र बंध का नाश करना ही है । प्रज्ञारूपो छैनो से आत्मा तथा १. प्रात्मख्याति टीका, गाथा २६२ से २७१ तक । २. वही, गाथा २७२ से २८२ तक । ३. वही, गाथा २८३ से २८७ नक ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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