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। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व बंध को अलग किया जाता है । इस प्रकार प्रात्मा तथा बंध को स्वलक्षणों से पृथक करके, समस्तरागादिरूप बंध को छोड़ना चाहिये तथा शुद्धात्मा को ही ग्रहण करना चाहिये । वास्तव में प्रात्मा और बंध का पृथक्करण तथा शुद्धात्मा का ग्रहण - इन दोनों का कारण एक ज्ञान ही है।' प्रथम चेतकापने के षट्कारकों के विकल्पों की स्थापना करके, पश्चात् षट्कारकविकल्पों को भी त्याग करके एक शुद्ध चैतन्यभाव मात्र का ही अनभव करना चाहिए । इसी प्रकार दृष्टापने के षट्कारकों की एवं ज्ञातापने के पट्कारकों को भेदरू। स्थापना करके, पश्चात् षट्कारकविकाल्पों को भी त्याग कर ज्यों का त्यों एक शुद्ध दृष्टा एवं ज्ञाता मात्र भाव का अनुभव करना चाहिए । आगे अपराधी को बंधन की शंका रहती है और वह बंधन में भी पड़ता है। परंतु निरपरात्री को बंधन की चिता नहीं होती और वह बंधन में भी नहीं पड़ता । अपराध का स्वरूप दर्शाते हुए लिखा है कि परद्रय का परिहार करके निजद्रव्य शुद्धात्मा की सिद्धि को राध कहते हैं, तथा राधरहित आत्मा को अपराध कहते हैं । अंत में उपमंहार करते हुए प्रधर
सोनों कमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिदा, यहीं और अशुद्धि इन पाठों को विषकुम्भ कहा, तथा व्यवहार धन द्वारा द्रश्य रू। प्रतिक्रमणादिर आठों को अमृतकुम्भ कहा है । परन्तु अप्रतिक्रमणादि तथा प्रतिक्रमणादि से विलक्षण अप्रतिक्रामणादि रूप तुतोय भूमिका को न देखने वाले पुरुषों को द्रव्य-प्रतिक्रमणादि भी विषकुम्भ ही निरूपित किए हैं, क्योंकि वे अपना मुक्ति का कार्य करने में असमर्थ हैं । तृतीय भूमि का शुद्धात्मा की सिद्धिरूप साक्षात् अमृतकुम्भ है । उसकी प्राप्ति होने पर द्वितीय भूमिका के प्रतिक्रमणादि में व्यवहार कथन से अमृतकुम्भपना आरोपित किया जाता है । इस तरह मोक्ष भी वहां से चला जाता है।' १. प्रात्मख्याति टीका गाथा २८८ से २९६ नक । २. प्रतिरमण - कृतदोषों का निवारण । तिसरगा - सम्यक्त्वादि गुणों में प्रेरणा । परिहार – मिथ्यात्वादि का निवारण । वारणा - पंचनमस्कारादि के पावन में चिन स्थिर करता । निवृत्ति - वाह्यविषयकषाय प्रादि से वित्त को हटाना । निंदा - प्रात्मसाक्षात्पूर्वक दोपों को प्रगट करना । गर्हा - गुरुसाक्षीपूर्वक दोषी को प्रगट करना । शुद्धि - दोषों के दूर करने हेतु
प्रायश्चित्तादि नेना।। ३. यात्मख्याति टीका, गाथा २९७ गे ३२७ तक ।