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कृतियाँ ।
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१०. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार - इस अधिकार में सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है । उक्त ज्ञान की महिमा आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ में गाई है। वह जान जीब-अजीव, कर्ता-कर्म, पुण्य-पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष रूप आठों स्वांगों को जानने वाला है, एकाकार तथा सर्वविशुद्ध है । यहां आत्मा के अकर्तापने की सयक्तिक, सोदाहरण सिद्धि की गई है । अक्रा आत्मा को कर्ता मानना प्रज्ञान का माहात्म्य है। प्राग कहा है कि जब तक आत्मा कर्म प्रकृति के निमित्त से उपजना, विनशना न छोड़े तब तक बह अज्ञानी है, मिथ्यादष्टि और असंयमी है। जब प्रात्मा कर्म प्रकृति के निमित से उपजना विनशना छोड़ देता है, तब वह ज्ञायक है, दर्शक है, मुनि है तथा बन्ध से रहित है। जिस प्रकार जगत् में सर्प विषभाव को अपने आप नहीं छोड़ता और न ही मिश्री युक्त दुग्धपन से ही विषभाव का त्याग करता है, उसी प्रकार अभव्य जीव प्रकृतिस्वभाव को अपने आप नहीं छोड़ता और न ही प्रकृतिस्वभाव को छ ड्राने में समर्थ द्रव्यश्रुतज्ञान के अधाम से भी प्रकृतिभाव (मिथ्यात्वादि) को छोड़ता है। ज्ञानी सो कर्मफल का अवेदक ही होता है । वह अनेक प्रकार के कर्मों का कर्ता तथा भोक्ता नहीं होता। जैसे नेत्र अनेक पदार्थों के परिणमन को देखते हैं परन्तु वे उनके कर्ता या भोक्ता नहीं हैं उसी तरह ज्ञान भी समस्त कर्मों को जानता हुआ उनका अवेदक तथा अकर्ता ही है । जिस तरह जगत् में लोकिक मत में सभी प्राणियों को विष्णु करता है, ऐसा माना जाता है, उसी प्रकार श्रमणों - मुनियों के अभिप्राय में आत्मा छहकाय के जीवों की दया करता है, ऐसी मान्यता में विष्णुमत के समान कपिना होने से श्रमणों को भी मोक्ष नहीं हो सकता ।3 पागे यह लिखा है कि परद्रव्य और आत्मतत्व में कोई संबंध नहीं है अत: उनमें कर्ता-कर्म सम्बन्ध भी नहीं हैं। व्यवहार कथन में आन्मा का परद्रव्य से सम्बन्ध तथा कर्ता-कर्म पने का सम्बन्ध निरूपित किया जाता है, परन्तु परमार्थ से उक्त निरूपण वस्तुस्वरूप नहीं है। अज्ञानी वस्तुस्वरूप का नियम नहीं जानते, इसलिये वे अज्ञान से भावकर्म के कर्ता होते हैं । कुछ
१. प्रात्मयानि गीका, गाथा ३० से ३१० तक । २. वही गाथा ३१ से ३२० तक। ३. वहीं, गाथा ३२१ में ३२३ तना ।