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। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृत्वं
एरियादी अज्ञानी, बााको तया असा मानते हैं। वे जिनवाणी की विराधना करते हैं क्योंकि वे यह नहीं जानते कि जिनवाणी में आत्मा को कथंचित् कर्ता भी कहा है । अतः जो सांख्यमतियों के समान "कर्म ही जगाते हैं, गुलाते हैं, सुखी दुखी करते हैं" - इत्यादि मानकर आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानते हैं, वे अर्हतमतानुयायी नहीं हैं । स्पष्ट है कि भेदज्ञान होने से पूर्व आत्मा को हमेशा कर्ता मानो तथा मेदविज्ञान होने के बाद ज्ञानमंदिर में स्थित स्वयं प्रत्यक्ष आत्मदेव कर्तृत्व रहित, अचल, एवा, परम ज्ञाता होता है, ऐसा मानो।'
"जो कर्ता है, वहीं नहीं भोगता" ऐसी मान्यता भी अज्ञान है। "कोई करता है तथा कोई और भोगता है", ऐसी मान्यता भी मिथ्यात्व तथा अनाहत है । इसे ही शुद्धनय का लोभ तथा ऋजुसूत्र नय का एकांत रूप मिथ्यारव कहा है। व्यवहार दृष्टि में कर्ता-कर्म विभिन्न माने जाते हैं परन्तु निश्चय से कर्ता-कर्म सदा ही एक वस्तु में होते हैं । जो जिसका होता है, वह वही होता है जैसे आत्मा का ज्ञान होने से ज्ञान वह आत्मा ही है । शुद्ध-नय की दृष्टि से तत्त्व का स्वरूप विचार करने पर अन्य द्रव्य में अन्य द्रव्य का प्रवेश दिखाई नहीं देता । जैसे से टिका (कलई} सेटिका की है, सेटिकामय है वह दीवाल की नहीं है, दीवालमय नहीं है। उसी प्रकार ज्ञायक ज्ञायक है, जायक अन्य का नहीं है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र अचेतन पदार्थों में किंचित् भात्र भी नहीं हैं, इसलिए पुद्गल का घात होने से दर्शन, ज्ञान, चारित्र का घात नहीं होता।
यथार्थ में रागद्वपादि चेतन के परिणाम हैं। रागद्वेषादि की उत्पत्ति के कारण अन्यद्रव्य कदापि नहीं हैं क्योंकि सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति अपने-अपने स्वभाव से होती है । जो जीव रागोत्पत्ति में पारद्रव्यों को ही दोष देते है, वे शुद्ध ज्ञान के बोध से रहित अन्धबुद्धि हैं, वे मोहरूपी नदी को पार नहीं कर सकते । पुद्गल द्रव्य अनेक प्रकार से निन्दा-स्तुति बचन रूप परिणमित होता है । अज्ञानी मानता है कि मेरी निन्दा या स्तुति की गई है अतः वह उनको सुनकर रोष (क्रोध) तथा तोष (संतोष) करता है। भविष्यत् काल का जो शुभाशुभ कर्म जिस भाव
१. आत्ममन्याति टीका, गाथा ३२४ से ३४४ तक। २. वही, गाथा ३४५ । ३४८ तथा । ३. वही, गाथा ३४६ रो ३७१ तक।