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________________ कुलियाँ । [ २६७ में बंधता है उस भाव से निडर होने वाला मा . सान है। वर्तमान काल में उदयागत शुभाशुभ कर्मरूप दोष को जो आत्मा जानता है वह आलोचना है तथा पूर्वकृत (भूतकाल में किए हुए) शुभ-अशभकर्मों से जो प्रात्मा अपने को अलग रखता है, वह आत्मा प्रतिक्रमण है ।' अपने उपयोग को अज्ञानरूप (कर्मरूप व कर्मफलरूप) करना, उसी का अनुभव करना, वह प्रज्ञान चेतना है। उससे कर्म का बंध होता है तथा शुद्धज्ञान अवरुद्ध होता है । अज्ञान चेतना संसार का बीज रूप है । मोक्षार्थी को अज्ञान चेतना का नाश करने के लिए सकलकों के सन्यास की भावना नचाकर, स्वभावभूत भगवती ज्ञान चेतना को ही सदा नचाना चाहिए । आग प्रतिक्रमण आलोचना तथा प्रत्याख्यान कलमों के ४९ प्रकार के भंगों द्वारा सन्यास भावना को नचाया गया है। पश्चात् आठ कों की १४८ प्रकृतियों के फलभोग की भावना का खण्डन किया गया है। एक मात्र चैतन्य आत्मा के अनुभव की ही बात की गई है। यहां नाटकीय शैली में प्रशांत रस का उत्कर्ष भी दिखाया है ।२ मागे शास्त्र, शब्द, रूप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, कर्म, धर्म, अधर्म, काल, आकाश, अध्यवसान आदि से ज्ञान को भिन्न दर्शाया गया है । ज्ञान के देह नहीं है और कर्म तथा नोकर्म का प्राहार भी नहीं है। ज्ञान परद्रव्य को किंचित् मात्र भी न तो ग्रहण करता है और न ही छोड़ता है। जब ज्ञान के देह है ही नहीं, तब देहाधिन मुनि-लिंग या गृहस्थी-लिंग में मोक्षमार्ग की कल्पना करना भी अज्ञान है। वास्तव में लिंग मुक्ति का मार्ग नहीं है । अहंत जिनेन्द्र भी देह में निर्मम होते हैं तथा निरन्तर लिंग को छोड़कर दर्शन-ज्ञान तथा चारिश का ही सेवन करते रहते हैं। ऐसे ही मोक्षमार्ग में लग जाने की प्रेरणा आचार्य ने दी है । उसे जिनवाणी की आज्ञा कहा है। अन्त में मोक्षमार्ग में आत्मा को स्थापित करने, उसी का ध्यान करने तथा उसी का अनुभव करने का उपदेश देते हुए लिखा है कि जो मुनि-लिंग या गहस्थी-लिंग प्रादि द्रव्यलिंगों में ममता करते हैं वे समयसार को नहीं जानते । यद्यपि व्यवहार-नय, उक्त दो प्रकार के लिगों का, मोक्षमार्गी के निषेध करता है, परन्तु निश्चय-नय सर्वलिगों का निषेध करता है । वह लिंग को मोक्षमार्ग नहीं मानता । उपसंहार के १. सात्मख्याति टीका, गाथा ३०२ से ३८६ तब । २. बही, गाथा ३८५ से ३८६ तक। ३. वहीं, गाथा ३६० गे ४११ तक। ४. वहीं, गाथा ४१२ स ४१४ तक।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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