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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व रूप में मूलग्रन्यकार ने समयप्रामृत पढ़ने तथा अर्थ अवधारण करने वाले को उत्तम सुख (मोक्ष सुख) होना लिखा है, तथा टीकाकार ने निखा है कि समस्त विकल्पों तथा जल्पों से बस होओ, उन्हें बन्द करो तथा एकमात्र परमार्थ स्वरूप आत्मा हो का अनुभव करो, क्योंकि समय सार से अधिक श्रेष्ठ जगत् में अन्य कुछ भी नहीं है। इस तरह उक्त अङ्क समाप्त होता है, परन्तु सर्व विशुद्धज्ञान रूप पात्र का निष्क्रमण नहीं होता, क्योंकि अन्य जीव-अजीबादि तत्त्व तो स्वांग थे अतः उनका निष्क्रमण दिखाया गया, परन्तु सर्वविशुद्धज्ञान, वह तो प्रात्मा का यथार्थ स्वरूप है, अविनाशी, टंकोत्कीर्ण, अचलस्वभाव है अत: उसका प्रागमन (प्रवेश या उदयो दिखागा,
किया जतन नहीं बताया । वह तो सदाकाल प्रकाशमान रहने वाला तत्त्व है।'
११. स्थाद्वाद अधिकार - इस अधिकार को टीकाकार ने ग्रन्थ की गम्भीर, प्रौढ़ तथा मार्मिक टीका समाप्त करने के बाद रवा है जिसका उद्देश्य वस्तुतत्त्व को व्यवस्था तथा उपाय-उपेय भाव पर पुनर्विचार करना है। स्याद्वाद को टीकाकार ने समस्त वस्तुओं के स्वरूप को सिद्ध करने वाला, अहंत, सर्वज्ञ का अस्खलित शासन निरूपित किया है । अने कांत की परिभाषा करते हुए लिखा है कि एक वस्तु में वस्तुत्व की सिद्धि करने वाली परस्पर दो शक्तियों के प्रकाशन को अनेकांत कहते हैं। उसके तत्-असत्, एकत्व-अनेकत्व, सत्व-असत्त्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि विरोधी यगलों का भी स्पष्टीकरण किया है। स्वचतुष्टय-परचतुष्टय का भी उल्लेख किया है । अनेकांत को जिनदेव का अलंध्य शामन लिखते हुए, अनेकांत द्वारा अात्मा को ज्ञानमात्र ही प्रसिद्ध किया है 1 ज्ञान आत्मा का लक्षण है। लक्षण की प्रसिद्धि से लक्ष्य की भी प्रसिद्धि होती है । अन्त में इस अधिकार के अन्तर्गत अत्यंत अनोखा, एवं दुर्लभ ४७ शक्तियों का निरूपण किया है । उपसंहार में लिखा है कि एकांतवादियों के मन में बस्तुस्वरूप की व्यवस्था सम्भव नहीं है, अनेकांत मन द्वारा ही उसकी सिद्धि सम्भव है ।
१२. उपाय-उपेयाधिकार - यहाँ स्पष्ट किया है कि आत्मा को ज्ञानमात्र कहने पर भी उसमें उपाय-उपेय भाव घटित होते हैं । जो साधक रूप है वह उपाय है और जो सिद्धरूप है वह उपेय है 1 जो भव्य
१. समयनार, माथा ४१५ टोला
२. समयमा कलम २६५ तया ।