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________________ कातियाँ । | २६६ स्वयमेव काललब्धिपावार अथवा गुरु के उपदेश से अपने ज्ञानतत्त्व को पा लेते हैं वे संसार परिभ्रमण से छूट जाते हैं तथा ज्ञानतत्त्व को न पाने बाले संसार परिभ्रमण करते रहते हैं । ज्ञान-नय तथा क्रिया-नय में परस्पर मित्रता भी दिखाई गई है । अन्त में टीकाकार काहते हैं कि आत्मा अनेक शक्तियों का समूह है, परन्तु नयों की दृष्टि से बह खण्डित किया जाता है और नय विकल्पों का निराकरण करके एक, अखण्ड, एकांत, शति तथा अचल चैतन्यमात्र तेज स्वरूप है । उपसंहारात्मक रूप में टीकाकार ने लिखा है कि वस्तुस्वरूप को दर्शाने की शक्ति शब्दों में है उससे समयमार की व्याख्या की गई है, उसमें स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र का कुछ भी कर्तव्य नहीं है । इस प्रकार सम्पूर्ण कृति समाप्त होती है । समग्र कृति श्राद्यन्त अनुभव लहरी से मण्डित है एवं प्राचार्य अमृतचन्द्र के अमृतमयी व्यक्तित्व का अद्वितीय निष्यद और अभर स्मारक है। पाठानुसंधान - आचार्य अमृतचन्द्र की टीकाकृतियों में आध्यात्मिक दृष्टि से समयसार की "आत्मख्याति" टीका का स्थान सर्वोपरि है । अध्यात्मपरक तथा अध्यात्मामृत रस से आग्लावित "प्रात्मयाति" के समान अन्य कोई टीका नहीं है । इसकी हस्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियाँ भारत के व.ोने सोने में विद्यमान जिममंदिरों, शास्त्र भण्डारों तथा ग्रन्थालयों में उपलब्ध हैं । सार्वजनिक शोध संस्थानों तथा व्यत्तिगत ग्रन्थ संग्रहालयों में भी इसकी अनेक प्रतियां प्राप्त होती हैं । वर्तमान में परम आध्यात्मिक सन्त कानजी स्वामी, सोनगढ़ (सौराष्ट्र के व्यापक प्राध्यात्मिक प्रभाव के कारण 'आत्मख्याति" टीका समम भारत के दिगम्बर जैन अध्यात्मरसिकों के घर-घर पहुंच चुकी है। महाराष्ट्र प्रदेश के कोल्हापुर जिले के 'बाहुबलि कुम्भोज" नामक दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र के सरस्वती ग्रन्प्र भण्डार में इसकी कन्नड़लिपि में ताड़पत्रीय प्रति भी उपलब्ध है। इसकी सर्वाधिक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि ईस्वी १३८३ में तैयार की गई थी जो उत्तर प्रदेश के अलवर जिले के बसवा (तहसील) नामक स्थान में लिखी गई थी। इसके अनेक स्थानों से विभिन्न सम्पादकों, टोकाकारों तथा अनुबादकों के विभिन्न संस्करण मिल चुके हैं। वे संस्करण हूँढारी हिन्दी, गुजराती, मराठी, वन्नड़, अंग्रेजी इत्यादि Jainisin ij] Rajasilian, Page 196.
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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