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________________ २५० ] । प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व भाषाओं में हैं । इसकी हस्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि हस्तलिखित प्रतिकों में मुद्रित पतियों की पेक्षा लिपिकार कृत अनेक त्रुटियां हैं । यद्यपि मुद्रित प्रतियों में काफी मात्रा में अशुद्धियों का शोधन हुपा है तथापि उनमें भी किसी संस्करण में मुद्रण विषयक अशद्धियां अधिक हैं तथा किसी में व.म । यहाँ मुद्रित प्रतियों के विभिन्न पांच संस्करणों का तुलनात्मक उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है। ये पांचों संस्करण क्रमश: ईस्वी १६१४ में काशी, ईस्वी १६६० में फलटण, ईस्वी १६६४ में सोनगढ़, ईस्वी १६७० में कारंजा तथा ईस्वी १९७७ में मुजफ्फरनगर से प्रकाशित हैं। इनका तुलनात्मक पाठभेद अगले पृष्ठ पर दी गई तालिका में दिया गया है, जिससे स्पष्ट है कि काशीप्रति में बाई अशुद्धियां हैं । उसमें एक बड़ा शुद्धिपत्रक भी लगाया गया है । फलटण की प्रति में भी प्राय: वे ही अशुद्धियां हैं जो काशी की प्रति में हैं । सोनगढ़ से मुद्रित प्रति में बड़ी सावधानी रखी गई है तथा पूर्व के संस्करणों में उपलब्ध सूक्ष्म व्याकरणात्मक अशुद्धियों को परिमार्जित किया गया है । कारंजा तथा मुजफ्फरनगर के संस्करणों में भी प्रायः सोनगद प्रति के पाठ काही अन करण किया गया है । इस तरह शुद्ध पाठ की दृष्टि से सोनगढ़ की प्रति अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और यथार्थ है । परम्परा आत्मख्याति टीका द्रव्यानयोग विषयक ग्रन्थ है । इसमें शुद्धात्मा का परिचय, अनुभव तथा पूर्णोपल ब्धि का उपाय निरूपित है । द्रव्यानयोग सम्बन्धी लिखित थ तनिरूपग परम्परा के आद्य प्रवर्तक आचार्य कुन्दकुन्द ही थे । उनके पश्चात् पूज्य पाद, गुणभद्राचार्य, योगीन्दुदेव, देवसेन आदि आचार्यों ने उक्त परम्परा का सम्पोषण किया परन्तु आचार्य अमृतचन्द्र ने जिस प्रकार व्यापकता, स्पष्टता, पटुता तथा प्रौढ़ता के साथ उक्त परम्परा की उन्नति की, वैसी उन्नति अन्य किसी आचार्य द्वारा सम्भव नहीं हो सकी । उनको आत्मख्याति जैन अध्यात्म का सर्वोत्कृष्ट रूप है 1 उक्त टोका द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द द्वाग उद्घाटित अध्यात्म का पुनः विशदीकरण, स्पष्टीकरण, प्रचार एवं प्रसार सम्भव हुआ है। उक्त अध्यात्मप्रवाह अमृतचन्द्र के बाद एक हजार वर्ष तक अद्यावधि निर्बाध रूप से प्रवहमान है। उनके पश्चादवर्ती अधिकांश टीकाकारों, लेखकों आदि ने 'आत्मख्या ति" टीका को सर्वाधिक श्रेष्ठ तथा प्रामाणिक मानकर प्रमाण रूपेण अपने ग्रन्थों में उदाहत किया है।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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