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कृतियाँ ।
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डालते हैं अत: दानों समान हैं। अतः दोनों कर्म निषेधयोग्य हैं ।' पागम से इस बात की पुष्टि होती है वि रागी जीव कर्म बांधता है तथा विरागी जीव काम-बंधन से मुक्त होता है। वास्तव में ज्ञान ही मोक्ष का कारण है । अज्ञानपूर्वक किये गये वन तप आदि वर्म-बंध के कारण हैं अतः उन्हें ''बालवत" नाम दिया गया है। ज्ञान गोक्ष का नया अज्ञान बंध का कारण है। यहां पृण्य कर्म के पक्षपाती को भी दुषण देते हुए लिखा है कि पुण्यकर्म के बांछक परमार्थ बाह्य हैं, मोक्ष के कारण को नहीं जानते तथा संसारपरिभ्रमण के ही हेतु पुण्यकर्म को वाहते हैं । आत्माका श्रद्धान सम्यक्त्व है, प्रात्मा का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है तथा प्रात्मा द्वारा रागादि का त्याग ही राम्याचारित्र है, ये तीनों एकस्वरूप से मोक्ष का उपाय हैं। समस्त कम मोक्ष के कारणों के घातक हैं अतः निषेध योग्य हैं। वे कर्म स्वयं भी बंध पर हैं इसलिक हेप हैं : सरह कर्म !!. पाप दो पात्रों के रूप में था वह अपना स्वांग त्यागकर एक पात्र रूप हो कर मंच से चला जाता है । इस तरह यह अंक भी समाप्त हो जाता है ।
५. ग्रानवाधिकार - यहाँ आत्रय रूप पात्र गभूमि में प्रवेश करता है। प्रात्मा में राग द्वेष तथा मोह रूप प्रास्रवभाव अपने ही परिणाम के कारण होते हैं अतः वे जइ न होकर, चिदाभास रूप हैं। ज्ञानी के ज्ञानमय भावों से अज्ञानमय प्रास्रब भावों का निरोध होता है । रागादि से युक्त अज्ञानमय भाव बंध के कर्ता हैं तथा रागादि रहित ज्ञानमय भाव बंध को कती नहीं है। ज्ञानी के द्रव्याखव नहीं होता । ज्ञानी निरास्रव होता है, क्योंकि उसके बुद्धि पूर्वक रागद्वेषमोहरूपी आस्रवभावों का प्रभाव है। जिस प्रकार बाल-स्त्री अनुपभोग्य होती है तथा वही यौवनावस्था को प्राप्त होने पर पुरुष को बंधन करती है, इसी प्रकार सत्ता स्थित कर्म अनपभोग्य है, वे ही उदय को प्राप्त होकर बंधन के कारण होते हैं - भोग्य होते हैं। ज्ञानी के कर्मोदय तो होता है परन्तु राग-द्वेष-मोह भाव के अभाव में वह बंधन में नहीं पड़ता। ज्ञानी जब शुद्धनय से च्यत होकर, रागादिभाव करता है तब उसके भी द्रव्यकर्म का बंध स्वयमेव होता है। जिस प्रकार भोजन उदर में स्वयमेव पहुंच कर
१. यात्मरूयाति टीका, मामा १४५ मे १४७ तक। २. नही, गाथा १४८ से १५४ तक । ३. वही, माथा १५५ से १६३ तक । ४. वहीं, गाथा १६४ से १७८ तक ।