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________________ २५८ । । आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व तो स्वयं परिण मते पुद्गल को जीब ने परिणमाया, यह कह्ना मिथ्या ठहरा। इस तरह सिद्ध है कि जिसमें स्वयं परिणमन शक्ति है ऐसे द्रव्य को परिणमन हेतु पर की अपेक्षा नहीं रहती, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं करतीं। इससे यह स्पष्ट हुअा कि आत्मा जिस भाक को करता है उसी का कर्ता होता है। ज्ञानी ज्ञान भाव का कर्ती होता है, अज्ञानी अज्ञान भाव का कर्ता होता है । जिस प्रकार स्वर्णमय भाव से स्वर्णमय कुण्डलादि भाव होते हैं तथा लोहमय भाव में लोहमय भाव होते हैं।' इसके बाद नबविभाग द्वारा आत्मा में कम बद्ध हैं या अबद्ध हैं ? इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि कर्म से यात्मा बद्ध है - यह व्यवहारनय का पक्ष है तथा कर्म से आत्मा अबद्ध है - यह निश्चय नय का पक्ष है, किन्तु समयसार तो उक्त दोनों पक्षों से परे - पक्षातिक्रांत स्वरूप है । वह परमात्मा,ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति. आत्मख्यातिरूप अथवा अनुभूतिमात्र समयसार है । अन्त में उपसंहार रूप में पक्षातिक्रांत समयसार की प्राप्ति का ऋमिक उपाय निरूपित करते हुए लिखा है कि प्रथम श्रुतज्ञान के अवलंबन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करके, आत्मा की प्रगटप्रसिद्धि के लिए, पर-प्रसिद्धि की कारणभूत इन्द्रियों व मन से उपयोग को समेटकर आत्मसन्मुख करके, नय-विकल्पों को छोड़कर निजरस से प्रगट आदि मध्य ३ अन्त रहित, एकः, अनाकुल, अखण्डप्रतिभासमय, अनन्त विज्ञानधन, परमात्मा समयसार को प्राप्त करता है ।' यहां उक्त अधिकार समाप्त होता है और कर्ता-कर्म रूप पात्र अपना स्वांग त्याग कर रंगभूमि से चले जाते हैं। ४. पुण्य-पाप अधिकार - इस प्रकरण में एक ही कम दो पात्रों {पुण्य-पाप) के बेष धारण कर रंगमंच पर आता है। शिष्य की मान्यता है कि शुभ और अशुभ अर्थात् पुण्य तथा पाप कर्म में कारण , स्वभाव तथा फल के स्वाद की अपेक्षा अन्तर होने से शुभ को सुशील तथा अशुभ को कुशील मानना चाहिये । उसके समाधान में कहा गया है कि जो कर्म संसार में प्रवेश (परिभ्रमण) करावे उसे सुशील कसे कहा जा सकता है । जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी तथा लोहे को बेड़ी दोनों बंधनकारक होने से बंधनापेक्षा समान हैं, उसी प्रकार शुभाशुभ कर्म भो आत्मा को बंधन में १. आत्मख्याति टीका, गाथा ११८ से १४० तक। २. वही, गाथा १४१ से १४४ तकः |
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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