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कृतियाँ ।
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ध्यवहार कथन में जोव एवं पुद्गल में कर्ता-कर्म का उपचार किया जाता है। यह लोकरूढ़ पवहार अनादि अज्ञान के कारण प्रसिद्ध है परन्तु वह दोष पूर्ण है, क्योंकि जगत् में प्रत्येक क्रिया परिणामी में भिन्न नहीं होती। अतः यदि आत्मा व्याप्य-व्यापक भाव से परभाव का कर्ता बने तो स्व तथा पर का विभाग अस्त हो जायेगा। स्व-पर विभाग के अस्त होने पर मिथ्यादटिपना प्राहट होता है । ऐसा जीव जिनमत के बाहर है । साथ ही द्विक्रियावादी मिथ्याद ष्टि भी है। अज्ञान से कर्म बंधते हैं, ज्ञान से कर्तापना दूर होधार कमबन्धन नहीं होता। आगे लिखा कि आत्मा व्याप्यव्यापकभाव से तो पर का कार्ती नहीं, निमिन-नैमित्तिक भाव से भो पर द्रव्य का कर्ता नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से क्रमशः तन्मयने तथा नित्यवत्व का प्रसंग उपस्थित होता है। ज्ञानी ज्ञानभाव का ही कर्ता होता है, पर भाव का नहीं। अज्ञानी भी परभाव का कर्ता नहीं होता, क्योंकि परभाव को कोई भी करने में समर्थ नहीं है, इसलिए स्पष्ट है कि आत्मा पुद्गल कर्म का अकर्ता है 'आत्मा को जहां भी परद्रव्य का कर्ता कहा है' वहां उपचार कथन किया है, परमार्थ नहीं। इसी तरह उसे परिणमनकर्ता, ग्रहण का उत्पादकर्ता, कर्ता, बधनकर्ता इत्यादि कहा जाता है, वह सभी उपचार ही है ।२ प्रागे पुद्गलद्रव्य का कर्ता पुद्गल को ही निरूपित किया तथा भेद करके मिथ्यात्व, अबिरति, कषाय और योग इन चार को ही उसका कर्ता बताया। उन्हीं चार के प्रभेद करके मिथ्यात्वादि से लेकर सयोग-केवलि गुणस्थान तक तेरह को का निरूपित किया है, परंतु ये सभी पद गलमय होने से उनमें आत्मा का कुछ भी नहीं है। उपयोग रूप ग्रात्मा भिन्न है तथा क्रोधादि भाव उससे भिन्नस्वरूपी है। आत्मा चैतन्य स्वभावी है तथा क्रोधादि जड़स्वभावी है। अतः दोनों में एकत्व नहीं है। यहां साँस्यमतानुयायी शिष्य की शंका निवारण हेतु पुद्गल द्रव्य के परिणाम स्वभाव को सिद्ध किया गया है। यहां यह स्पष्ट किया है कि यदि पुद्गलद्रव्य स्वयं कमरूप नहीं परिणमता हो तो अपरिणामी पुद्गल को प्रात्मा कैसे परिणमा सकता है और यदि पुद्गलद्रव्य स्वयं आर्मरूप परिणभन शक्ति वाला है
१. आत्मख्याति टीका, गाथा ६ से १८ तक । २. वहीं, गाथा १६ मे १०८ तक । ३. वहीं, गाथा १.६ से ११२ नका ४, वही, गाथा ११३ से ११७ तक।