SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व निरूपित किया गया है। यहाँ निश्चय तथा व्यवहार कथनों के रहस्य का उद्घाटन करते हुए. जीव तथा अजीव का स्पष्ट भेदज्ञान कराया गया है। जीव के केन्द्रियादि व र्याप्तन अपर्याप्तक आदि भेद नामकर्म को प्रकृतियां हैं और पुद्गल की रचना है इत्यादि विवेचन किया गया तथा इस अधिकार का उपसंहार करते हए लिखा है, कि मिथ्यात्वादि गुणस्थान पौद्गलिक कमोदय जन्य होने से अचेतन हैं, वे आत्मस्वरूप नहीं है । इस प्रकार ज्ञानाभ्यास से- मेदविज्ञान के वन रो जीव अजीव का स्वरूा जाना जाता है । उन्हें जान लेने पर बे दोनों अपना एकत्व का स्वांग त्याग कर रंगभूमि से चले जाते हैं।' ३. कर्ता-कम अधिकार - इस अधिकार में जीव अजीव दोनों अपना वेष बदल कर बता-कर्म के धेष में प्रवेश करते हैं। आत्मा जब सक आत्मा तथा आस्रबादि (क्रोधादि चिकारी भावो) में अन्तर नहीं समझता है तब तक कता-कर्म की मान्यता नहीं मिटती और तब तक बन्ध की प्रक्रिया भी चलती रहती है। आस्रवों का स्वरूप अपवित्र, स्वभाव के विपरीत. और दुःस्व के कारण ।। है परन्तु आत्मा का स्वरूप पबित्र, चैतन्य स्वभाव के अनुरूप तथा सूख और सुख के कारण रूप है ऐसा जानने पर आत्मा आस्रवों से निवृत्त होता है। प्रास्त्रों से हटने की विधि इस प्रकार है कि आत्मा अपने स्वरूप को एक, शुद्ध ममत्वरहित तथा ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण अनुभव करता है, उस समय अध व, अशरण, अस्थायी आस्रवभाव को दुःखरूप तथा दुःख के बारण जानकर आत्मा उनसे निवृत होता है। आगे ज्ञानो आत्मा का लक्षण करते हुए लिखा है कि जो आत्मा कर्म तथा नोकर्म के परिणामों का कर्ता न होकर मात्र ज्ञाता होता है, वह प्रात्मा ज्ञानी है। आत्मा अनेक प्रकार के पुदगलकार्मों का ज्ञाता है, उनकी पर्याय रूप से न तो परिणमित होता है, न उन्हें ग्रहण करता है और न ही उनका उत्पन्न ही होता है। इसी तरह पुद्गलद्रव्य भी अपने परिणाम रूप ही परिणमता है, जीव द्रव्य की पर्याय रूप न परिणमित होता है, न उमे ग्रहण करना है और न हो उस रूप उत्पन्न होना है। जीव तथा पुदगल के परिणामों में परस्पर निमित्तनैमित्तिकपन। पाया जाता है. कर्ता-कर्म ना नहीं। लोकरूढ़ अनादि के १. अात्मस्वालिटीका, गाथा ४४ से ६८ तक । २. वही, गाथा ६८ में ७४ नक | ३. वहीं, गाथा ७५ ४. वही, गाथा ७६ से ७८ तक।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy