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________________ कृतियाँ ] [ २५५ i तथा प्रसंयुक्त ऐसे पांच भाव रूप अनुभव करना परमार्थ से समग्र जिनशासन का अनभव है। आत्मा जिस भाव से साध्य तथा साधन हो, उस भाव से उसकी साधना करनी चाहिए। जब तक प्रात्मा ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म तथा नोकर्म से अपना एकत्व स्थापित करता है तब तक वह अज्ञानी बना रहता है। उस अज्ञानी को समझाने का प्रयास करते हुए प्रात्मा को उपयोग लक्षण वाला बताया तो पुद्गल कर्म आदि से भिन्न समझाया है। अज्ञानी की शंकाओं का निराकरण भी किया गया है कि तीर्थकर के शरीरादि की स्तुति व्यवहार मात्र है परमार्थ से वह तीर्थंकर की स्तुति नहीं है क्योंकि व्यवहारनय जीव और शरीर को एक रूप कथन करता है परन्तु निश्चय तो उन्हें यथार्थ भिन्न भिन्नही मानता है। आम निश्चय स्तुति का स्वरूप, ज्ञेय-ज्ञायक तथा भाव्य-भावक संकरः दोष का खण्डन, जितेन्द्रिय, जितमोही तथा ज्ञान ही प्रत्यख्यान है इत्यादि निरूपण किया है। अन्त में मोहनिर्ममता, धर्मअधर्म आकाश काला दि द्रव्यों से भेदज्ञान स्पष्ट बारके उपसंहार रूप में ज्ञान प्रकाश होने पर आत्मा, अनादिमोह को नाशकर, सावधान होकर, मुट्ठी में बन्द सोने को भूलने तथा पुन: स्मरण करने वाले की भांति अपने अपने स्वरूप का अनुभव करता है त्रि में एक शुद्ध नित्य अरूपी ज्ञानदर्शनमयो प्रात्मा हूँ, परद्रव्य लेशमात्र भी मेरा नहीं। यहां प्रथम प्रकरण 'रंगभूमि' समाप्त होता है । २. जीवाजीवाधिकार - यहां जीव-अजीव द्रव्य दोनों एक होकर रंगभूमि में प्रवेश करते हैं। जीव न अजीव का संयोग अनादिकाल से है। यद्यपि प्रात्मा असाधारण उपयोग लक्षण वाला है तथापि लक्षण ज्ञान से रहित अज्ञानी जन आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की कल्पनाएं करते हैं । अज्ञानियों की अलतकल्पनाओं का निराकरण करते हए अध्यवसानादि विकारी भावों को जिनमत में जीव संज्ञा है, वह मात्र व्यवहार रूप कथन है इस प्रकार स्पष्ट किया है । वहां "राजा की सेना के गमन को राजा का गमन' का दृष्टांत देकर स्पष्टीकरण किया । जीव का यथार्थ स्वरू। दर्शाते हुए उसे रूप, रस गंध, ब शब्द से रहित, इंद्रियों से गोचर तथा अलिंगग्राह्य (किसी चिन्ह से ग्रहण में न आने वाला) १. प्रात्मख्याति टीका, गाथा १४ से १८ तपः । २. वही, गाथा १६ से ३८ तक। ६. वहीं, गाथा २६ मे ४३ तक।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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