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________________ २५४ ] | आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व गाथाओं को उक्त "जीवाजीव प्ररूपत्रा" प्रथम अंक लिखा । इसी तरह का सामञ्जस्य दिखाने हेतु अंत में स्याद्वाद तथा उपाय - उपेय अधिकार जोड़कर कुल १२ अधिकार कर दिये हैं । उक्त १२ अधिकार में निरूपित विषयवस्तु इस प्रकार है - १. पूर्वरंगाधिकार प्रारम्भ में समस्त सिद्धों को नमस्कार करके समयसार पुत्रों का परिभाषण को की की गई है। समग्र टीका में अभिसमय ( शुद्धात्मा) के स्वरूप का विश्लेषण किया है, जिसमें अनेक विपरीत मतों का निराकरण भी हो गया है। समय का अर्थ समस्त पदार्थ करते हुए उन्हें अपने-अपने अनंत धर्मों का स्पर्श करने वाला लिखा है तथा समय के एकत्व को हो सुन्दर कहा है । उस एकत्वविभक्त अर्थात् स्व से एकस्व तथा पर से विभक्त आत्मा को जगत् के जीवों ने कभी भी प्राप्त नहीं किया है । उसकी अति के कारण, कषायों के साथ एकता, अपने निजात्मा का अज्ञान तथा आत्मज्ञानी गुरुओं की संगति सेवा आदि न करना, बताये हैं | पश्चात् उम एकत्वविभक्त आत्मा का दिग्दर्शन युक्ति, आगमपरम्परा तथा स्वानुभव रूप वैभव से कराया है । व्यवहारनय के कथन द्वारा उस आत्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रादि भेद किये जाते हैं परन्तु परमार्थ से तो बहु अभेद एकमात्र ज्ञायक ही है । फिर भी व्यवहार कथन करने का प्रयोजन बताते हुये लिखा है कि जिस प्रकार श्रनार्य को ग्रनार्यभाषा बिना नहीं समझाया जा सकता, उसी प्रकार जगज्जनों को व्यवहार की भाषा विना परमार्थ स्वरूप समझाया जाना संभव नहीं है इसलिए व्यवहार नय का कथन किया है। यद्यपि व्यवहारनय का कथन वस्तु स्वरूप का प्रतिपादक न होने से वह अनुसरण करने योग्य नहीं है तथापि उक्त व्यवहार किसी-किसी को किसी काल में जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है। इस प्रकार तीर्थ तथा तीर्थफल की व्यवस्था है । धागे सम्यक्त्व का स्वरूप निर्देश करते हुये लिखा है भूतार्थं ( निश्चय ) नय से नवतत्त्वों का परिज्ञान सम्यक्त्व है । भूतार्थ नय से ज्ञान करने पर नववत्त्वों में एकमात्र ज्ञायक आत्मा ही प्रकाशित होता है । उन ज्ञायक आत्मा की अनुभूति हो आत्मख्याति है ।" आत्मा की अनुभूति ही एकमात्र भूतार्थ है, उस अनुभूति के उपाय प्रमाण, नय, निक्षेप आदि प्रभूतार्थ हैं। आत्मा को अस्पष्ट, ग्रन्थ, नियत, अविशेष १. श्रात्मख्याति टीका, गाथा १ से १३ लक -
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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