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कृतियाँ ]
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आत्मख्याति की प्रामाणिकता इस कारण से और भी अधिक है कि उसमें 'समयपाहड" के मूलभावों का हो भविशद, मुस्पष्ट व वैदृष्यपूर्ण विवेचन है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि किसी महान् प्राचार्य की महान्कृति पर टीका लिखने मात्र से टीकाकार की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती, जब तक टीका में मूल ग्रन्थकर्ता के मौलिक भावों को यथार्थ रूप में अभिव्यक्त न किया गया हो। प्राचार्य अमृतचन्द्र की प्रामाणिकता का उपरोक्त कारण है। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ अष्टपाहुड पर सोलहवीं सदी के भट्टारक श्रुतसागर ने टीका लिखी है। किन्तु उसमें उन्होंने मूलतथ्यों से विपरीत शासनदेवता अादि की पूजा का विधान भी लिखकर' टीका को प्रामाणिकता की कोटि से गिरा दिया है । आत्मख्याति टीका मूलानुगामी तो है ही, साथ ही प्रमेय की स्पष्ट प्रकाशक होने से पुर्णतः प्रामाणिक टीका है। उनकी मूलानुगामिता का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है । कुन्दकुन्द ने समयसार में प्रात्मा को परद्रव्य का अकर्ता निरूपित किया है ।२ उसी का अनुसरण करते हुए अमृतचन्द्र ने अपनी कृतियों में अपने कर्तृत्व के विकल्प का निषेध किया है। शताधिक लेखकों ने अपनी कृतियों में प्रमाण के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति टोका का उल्लेख किया है। अभूनचन्द्र से प्रभावित व्यक्तियों के प्रकरण में उक्त बात की चर्चा सप्रमाण को जा चुकी है। विषयवस्तु
मूलग्रन्थकार ने 'समयपाहुई" ग्रन्थ को स्पष्टतः ६ अधिकारों में विभाजित किया था, परन्तु आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त प्रस्थ की आत्मख्याति टीका १२ अधिकारों में प्रस्तुत की है । कुन्दकुन्द के अधिकार क्रमश: इस प्रकार हैं - (१) जीवाजीवाधिकार, (२) कति कर्माधिकार, (३) पुण्य-पाराधिकार, (४) संबराधिकार, (५) आस्रवाधिकार, (६) निर्जराधिकार, (७) बंधाधिकार, (८) मोक्षाधिकार, (९) सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार । अमृतचन्द्र ने समयसार को नाटक का रूप दिया है अतः उपर्यत नौ अधिकारों को उन्होंने 'नो' अंक निखा है। प्रथम जीवाजीवाधिकार में कुल ६५ गाथायें हैं परन्तु उनमें प्रारम्भिक ३५
१. अष्टपाहुड (दर्शनपाहुड), गाथा २ नी टीका २. समयमार, गाथा ६६, कता-कर्म अधिकार । ३. समयसार कलम २७८