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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
१. प्रत्येचा अधिकार के अन्त में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि का नाम उपलब्ध होता है। यथा - "इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरि विरचितायां समयसारव्याख्यात्मल्यातो..." इत्यादि ।
२. वहीं वहीं टीका में आचार्य अमृत चन्द्र का नामोल्लेख पाया जाता है जिरासे उनका कांपना स्पष्ट होता है।'
३. सर्वाधिक ठोस तथा पृष्ट प्रमाण तो टीकाकार द्वारा प्रयुक्त माना नाम है जो टीका के अंत में टीका के कर्तुत्व के विकल्प का निषेध करते समय प्रयोग किया गया है। उन्होंने लिखा है कि स्वरूप में गुप्त प्रमुतचन्द्र का टीका के निर्माण में कुछ भी कर्तृत्व नहीं है।
४. उत्तः टीका रचना के काल से लेकर आज तक समस्त विद्वानों व लग्जकों ने उक्ता टोका की सृष्टि आचार्य अमृतचन्द्रकृत ही मानी है। प्रामाणिकता -
जैन अध्यात्म परम्परा में यदि सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक किसी आचार्य को माना जाता है तो वे हैं आचार्य कुन्दकुन्द, जिसके संबंध में कविवर वृन्दावन की यह सुक्ति प्रसिद्ध है "हुए, न हैं, न होहिंगे, मुनीन्द्र कुन्दकुन्द से ।": प्रामाणिवत्ता की दृष्टि से कुन्दकुन्द का प्रथम स्थान है । यद्यपि कुन्दकुन्द की अध्यात्मधारा के प्रसिद्ध तथा प्रामाणिक प्राचार्यों में पुज्यपाद (छटची ईस्त्री सदी) तथा जोहेदु (योगीन्दु,यत्री ईस्वी सदी) का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है लथापि कुन्दकुन्द के बाद द्वितीय स्थान प्रामाणिकताका दुद से यदि किसी को मिला है तो वे हैं आचार्य अमृत चन्द्र । व मूल ग्रन्थ-प्रोता की अपेक्षा द्वितीय स्थान पर आते है परन्तु टीकाकारों की इस 'रम्परा में तो वे अद्वितीय ही है । उनको प्रारमख्याति टीका "समयपाहड' मूल ग्रन्थ से कम महत्व की नहीं है। जिस प्रकार तीर्थंकरों की वाणी के अर्थ प्रकाशनकर्ता गणधर होते हैं, उसी प्रकार कुन्दकुन्दाचार्य की वाणी के मर्म प्रकाशनकर्ता प्राचार्य अमृतचन्द्र हैं। उन्हें कुन्दकुन्द का रहस्योद्घाटक गणधर कहें तो अत्युक्ति न होगी।
१. उदितगमृतचन्द्रज्योति र तत्सम गाज्ज्वलतु विमलपूर्ण निःमपत्नस्वभाव ।
समयमार कलश २७६ २. स्वरूप गुप्तस्य न किंचिदस्ति-काव्यमे वामृत चन्द्रसूरे (समयमार कलश २७८) ३. कुन्दकुन्द भारती, प्र., पृष्ट २