________________
कृतियो ]
। २५१ १. उक्त टीका के प्रत्येक अधिकार के अंत में प्रात्मरूपाति" नाम ही प्रयुक्त है - इति श्री समयसार व्याख्यात्मख्याती पूर्वरंग: समाप्तः" इत्यादि ।
२. मंगलाचरण में टीकाकार ने ऐसे आत्मा को नमस्कार किया है जो स्वान भव में प्रकाशित या ख्यात होता है। साथ ही टीका का प्रयोजन भी आत्मा की अनुभूति (ख्याति)करना होने से 'आत्मख्याति" नामकरण सार्थक प्रतीत होता है।
३. टोकाकार ने आगे 'आत्मानभूति" का अक्षण ''आत्मख्याति" करते हुये लिखा है कि शुद्धनय से स्थापित प्रात्मा का लक्षण आत्मस्याति ही है, उससे प्रात्मा की प्राप्ति होती है। वह आत्मा की प्राप्ति या अनुभूति ही आत्मरूपाति है तथा आत्मग्यानि ही सम्पर्श न है । इस तरह स्पष्ट है कि समग्र टीका का उद्देश्य एवं प्रतिपाद्य शुद्धात्मा की अनुभूति ( ख्याति) करना तथा उस अनुभूति का उपाय दिखाकर, उसकी प्राप्ति की प्रेरणा करना है अतः प्रात्मा की अनुभूति, सम्बग्दर्शन या आत्मख्याति एकार्थवाची होने से टोका का "आत्मख्याति" नामकरण भी सहेतुक तथा सार्थ है।
४. अमृतचन्द्र के समयी तथा परवर्ती जिन जिन लेखकों ने उक्त टीका का जहां कहीं भी उल्लेख किया, वहां उसे "आत्मख्याति" नाम से ही व्यवहृत किया है। टोका-कर्तृत्व -
बैसे तो उक्त प्रात्मख्याति रीका के कर्तृत्व पर आज तक किसी भी विद्वान या लेखक को कभी भी विप्रतिपत्ति नहीं हुई है, तथापि यहां पर उक्त टीका के टीकाकार का नामोल्लेख उनकी टीका में कई बार हुमा है, उसको जानकारी प्रस्तुत करना समयोचित है। टीका-कर्तृत्व के संबंध में कुछ उल्लेख इस प्रकार है -
१. "स्वानुभूत्या चकामते' (समयगार कलश प्रथम) २. मम गरमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्र मूर्ते, भवतु ममयसार व्याख्ययैवानुभूनेः ।
(वही, पद्य सं. ३) ३. शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापिनस्थात्मनोनुभूतरात्मन्याति लक्षणायाः पद्यमानत्वात् ।
सगनगार गाथा १३ की टीका ४. या त्वनुभूतिः सात्मख्याति रेव पारमस्या तिस्तु सम्यग्दर्शनगंव ।(वही, टीका १३)