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________________ १५४ ] [ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व लेते हैं। दुष्टांत के सहारे दुर्गम शिवाज भी सुगम दो लाते हैं, इसका उल्लेख एक स्थल पर अमृतं चन्द्र ने स्वयं किया है । यथा "अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धांलयति - येन प्रकारेण रूपादिरहिनो कपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण रूपादि रहितो रुतिभिः कर्मपुद्गलः किल बध्यते, अन्यथा कथ ममूर्तो मूर्त पश्यति जानाति चेत्यत्रापि पर्यु नयोगस्पानिवार्यत्वात् । न चैतदत्यलदुर्घटस्वाहाष्टान्तिवीकृतं, किन्तु दृष्टांत द्वारेमाबालगोपालप्रकटितम् । तथाहि यथा बाल स्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मुबलीवर्द बलोवर्दै वा पश्यतो जानतश्च न बलोवर्देन सहास्ति सम्बन्धः, विषय भावावस्थित बनीवर्दनिमित्तोपयोगाघिरूबबलीबर्दाकारदर्शन ज्ञानसम्बन्धो बलीवर्दसंबंधव्यवहारसाधकस्त्वस्टोव, तथा किलात्मनांनीरूपत्वेत स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलः सहारित संबंधः, एकादगाहभाबावस्थित कर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढ़ रागद्वेषादि भाव सम्बन्धः कर्म पुद्गलबंधव्यवहार साधकस्त्वस्त्येव ।" उार्यक्त टीका में अमृतचन्द्र की सिद्धानशता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। 6. एव श्रेष्ठ सिद्धांतवेत्ता ही ऐसा विलक्षण तथा गंभीर कथन कर सकता है कि अर्हतादिकी भक्ति रूप शुभ राग - प्रशस्तराग भी साक्षात् १. प्रवचनसार नाथा १७४ की टीका-अर्थ-जिस प्रकार से ख्यादि रहित (जीव) रूपो द्रव्यों का, उनके गुणों को देखता व जानता है, उसी प्रकार रूपादि रहित (जीव) रूपी पुद्गल क्रमों के साथ पंश्ता है क्योंकि यदि ऐसा न हो तो यह प्रश्न अनिवार्य होगा कि अमूल मूर्त को कैसे देखता है तथा जानता है ? और यह (रूपी-अरूपी के बंघ की बात) अत्यन्त दुर्घट भी नहीं है इसलिये उसे सिद्धांतरूप बनाया है, परंतु आबालगोपाल सभी को ज्ञात हो जाय इसलिये अष्टांत द्वारा समझाया गया है । जिस प्रकार बालगोपाल के पृथक् रहने वाले मिट्टी के बल को प्रथया सच्चे बैल को देखने जानने पर बल के साथ संबंध नहीं है तथापि विषयरूप से अवस्थित बैल के निमित्त से उपयोगाधिरूढ़ बल याकार के दर्शन ज्ञान के सम्बन्ध से बल के ग़ाथ सम्बन्ध वाले व्यवहार का सापक अभश्य है, इसी प्रकार प्रात्मा अरूपीपने के कारण स्पर्श शून्य होने से उसका कर्भपुद्गलों के साथ सम्बन्ध नहीं है, तथापि एक क्षेत्रावगाही कर्मपुद्गल के निमित्त से उपयोगारून रागादि भावों के साथ सम्बन्ध, कर्मपुद्गलों के साथ के वंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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