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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १५५ मोक्ष का बाधक - अन्तराय है । उसका कारण प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं - "अहंदादिभक्तिमात्ररागज नित साक्षान्मोक्षस्यान्तरायद्योतनमेतत् । यः खल्वहंदादिभक्ति विधेयबद्धिः सन् परमसंयमप्रधानमतितोब तास्तप्यते, स ताबन्मावरागक्रलिकलडित स्वान्तः साक्षान्मोक्षस्यान्तरात्रीभूतं विषयविषद्र मामोदमोहितान्तरङग स्वर्गलोके समासाद्य, सुचिरं रागांगार पच्चमानोऽन्तस्ताम्यतीति ।" इस व्याख्या के पूर्व सिद्धांतवेत्ता अमृतचन्द्र यह बात भो समष्ट करते हैं कि अहतादि की भक्ति परसमय रूप प्रवृत्ति होने से साक्षात् मोक्ष के हेतुपने से रहित है, परन्तु उसमें परम्परा से मोक्ष का हेपना भी दर्शाया गया है। यहाँ परम्परा से राग को मोक्ष का कारण सुनकर राग को उपादेय नहीं मानना चाहिए, बल्किा हेय ही मानना चाहिये। जो रस अहतादि की भकि रूप प्रशस्तराग के एक नाण को भी उपादेय मानता है अथवा जिसके हृदय में रागकण जीवित है, वह भले हो समस्त सिद्धांत का पारंगत हो तथापि गगरहित (अगगी) निज शुद्धस्वरूप स्वसमय (मुद्धात्मा) को वास्तव में नहीं जानता। इसलिए "धनकी से निपकी हुई रुई' के न्याय के अनुसार, जीव को स्वसमय की प्रसिद्धि हेतु अर्हतादि की भक्ति विषयक भी रागरेण क्रमशः दूर करने योग्य है :४ वह रागरेणु अनर्थपरम्परा का कारण है।' एक स्थल पर तो वे यहां तक लिखते हैं कि इस जगत में रत्नत्रयरूप धर्म निर्वाण का ही कारण होता है, अन्य गति का नहीं । रत्नत्रय के साथ जो पुण्य का आलब होता है, वह शुभोपयोग का अपराध है।' भक्तिरूप प्रशस्त राग - शुभराग - पुण्यभाव के विषय में इतना खुलासा कथन करना एक महान् सिद्धांतरेत्ता आचार्य अमृतचन्द्र जसा का काम है ।
१. पंचास्तिकाय माथा. १७१ २. पंचास्तिनाय गाथा १७० (... साक्षामोक्षहेतृत्वाभावेऽपि परम्परा मोक्षहेतु
खगद्गायद्योतनमेतत् ।।") ३. वही गाथा १६६ (ततः रात्र संगकारण काऽपि परिहग्गीया परसमयप्रवृत्ति
निबन्धनत्वदिति"I) ४. यही गाथा १६७ (यस्य खलु रागरेगु कणिकाऽपि जीवति प्रमेण गगरेणु
रपनरणीया ।") ५. वहीं गाथा १६८ (रागलवमुलदोषपरंपराख्यानमेतत्""ततोरागकलिबिला
समूल एवायमनर्थसंतान इति"} ६. पुरुषार्थसिद्धयुपाय गाथा २२०- रत्सत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्येव भवति नान्यस्य ।
यात्रवति यत्तु पुण्यं गुभोपयोगोऽयमपराधः ।।