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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व उपरोक्त उदाहरण में विरोधाभास के साथ ही अनुप्रास का सौन्दर्य भी प्रस्फुटित हुआ है जो पाठक कोचमत्कृत करता है । लघुतत्त्वस्फोट के प्रथम अध्याय में सर्वत्र विरोधाभास अलंकार मुख्य रूप से अभिव्यक्त हुआ है। प्रर्यान्तरन्यास अलंकार :
तवसहजविभाभरेण विश्व वरद ! विभात्य विभामयत् स्वभावात् । म्नपितमपि पड़ोभिकष्णरश्मेस्तव निरहेगा किनितीय ।।
अर्थात हे वरदायक, स्वभाव से अप्रकाशित जगत् अापके प्रकाशमय ज्ञान के समूह से प्रकाशित हो रहा है । सो ठीक ही है क्योंकि सूर्य तेज से प्रकाशित होने पर भी जगत् आपके अभाव में किंचित् भी प्रकाशित नहीं होता। दृष्टांत अलंकार :
इसमें उपमान तथा उपमेय वाक्य दोनों में सभी उपमान, उपमेय तथा साधारण धर्म का प्रतिबिम्बन होता है । नीचे उदाहुत पद्म में कहा गया है कि प्रकट होता हुआ बहुत भारी दुःख का समूह भी समतामृत के स्वाद को जानने वाले मुनियों के लिए सुखरूप होता है, जिस प्रकार इस लोक में हटपूर्वक अग्नि से तपा हुया दूध पीने वाले, दुग्धरस के ज्ञाता मार्जार को महादुःख का भार भी सुख रूप मालभ होता है । मूल पद्य इस प्रकार है....
समामृरास्वादविदां मुनीनामुद्यन्महादुःखभरोऽपि सौख्यम् । परोरसज्ञस्य यथा वृषारेहाग्नितप्तं पिबतः पयोऽत्र ।।'
इसी प्रकार अन्यत्र भी दृष्टांत अलंकार प्रयोग करते हुए वे लिखते हैं कि जिस प्रकार सिंह को सर्वथा न जानने वाले पुरुष के लिए बिलाव ही सिंहरूप होता है, उसी प्रकार निश्चय नय के स्वरूप से अपरिचित मनुष्य के लिए व्यवहार ही निश्चयपने को प्राप्त होता । उनका मूल पद्य इस प्रकार है :
लघुतस्वस्फोट, अध्याय १६, पद्य २१. २. काव्यप्रकाश, उल्लास १०, पृ. ३७८. ३. लघुतत्त्वस्फोट, अध्याय , पद्य २३.