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कुतियां ।
पाठानुसंधान :
समयव्याख्या टीका अत्यन्त प्रौढ़, गम्भीर अर्थयुक्त तथा महान् दार्शनिक कृति है । ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वप्रथम दीका प्रात्मख्याति, पश्चात तत्त्वप्रदीपिका और तत्पश्चात् समय व्याख्या नामक टीका की रचना हुई है । समयव्याख्या टीका प्रवचनसार की तन्वप्रदीपिका की सारभूत कृति है ।' प्रात्मख्याति तथा तत्त्वप्रदीपिका टीकाओं की भाँति समयव्याख्या टीका का भी व्यापकरूप में प्रचार एवं प्रसार हया है। समयव्याख्या की अनुसारी टीकाएँ, उनकी पाण्डुलिपियों तथा विभिन्न प्रकाशनों की तालिका से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि इसका भी प्रचार-प्रसार क्षेत्र व्यापी एवं कालव्यापी दोनों प्रकार से हुआ है। इसकी उपलब्ध कुछ मुद्रित प्रतियों के मूलपाठों के तुलनात्मक अनुशीलन से ज्ञात हुआ कि उनमें विशेषतः पाठभेद नहीं है । तुलनात्मक प्रतियों में प्रथम प्रति पं. पन्नालाल बाकलीवाल द्वारा सम्पादित १६१५ ई. में बम्बई से प्रकाशित है । द्वितीय प्रति पं. मनोहरलाल द्वारा संशोधित १९५९ ई. में अगास से प्रकाशित है। तृतीय प्रति पं. हिम्मतलाल जे. शाह द्वारा अनुवादित १९६५ ई. में सोनगढ़ से प्रकाशित है, तथा चतुर्थ प्रति प्रो. ए. चक्रवर्ती द्वारा अनुवादित १६७५ में दिल्ली से प्रकाशित है । इनमें प्रथम प्रति का अविकल अनुकरण द्वितीय प्रति में हया है । तृतीय प्रति का अनुकरण चतुर्थ प्रति में यथावत् पाया जाता है । प्रथम तथा तृतीय प्रलि में विशेषता मात्र इतनी है कि ग्रा. १११ की टीका के रूप में "पृथ्विकायिकादीनां पंत्रानामेकेन्द्रियत्वनियमोऽयम् ।" इन शब्दों का प्रयोग पाया जाता है, जबकि तृतीय प्रति में १११वी गाथा की टीका के रूप में एक भी शब्द नहीं पाया जाता है । दूसरे, प्रथम प्रति में १७३ गाथा की टीका के अंत में स्वशक्ति संमृचिल..." ..." इत्यादि अंतिम पद्म देकर "इति समयन्यारत्या नवपदार्थ पुरस्सर मोक्षमार्ग प्रपञ्चवर्णनो द्वितीयः श्रतस्कंधः समाप्तः" इन शब्दों के साथ दीका समाप्त होती है, जबकि तृतीय प्रति में १७३वीं गाथा की टीका के अंत में "इति .........."थुनस्कंधः .. 'समाप्तः" हम मुचना के पश्चान् “स्वशक्तिसंसूचित".........
१. पंचारितकाय, गा. १७३ वी मममन्याच्या टीका ।
'प्रबनगशाशय गारभूतं पंचास्तिकामभवहाभिधानं भगवत्मज्ञोपनत्वान सुमिभहित नमेति ।"