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________________ ३२२ । । प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व प्रकार का राग व रागांश नाश करने लायक है । यद्यपि अर्हतादि की भक्ति रूप रागप्रवृत्ति में साक्षात् मोक्ष हेतूपने का अभाव है. तथापि उसे परम्परा से मोक्ष हेतुपने का सद्भाव कहा गया है। आगे अर्हन्तभक्ति को साक्षात् मोक्ष का अंतरायस्वरूप भी लिखा है, क्योंकि संयमप्रधान तपस्वी भी शेष रागरूप मलेष से दुषित अंतःकरण होता हया विषयाविषत्रक्ष के आमोद से जहाँ अंतःकरण मोहित होता है - ऐसे स्वर्गलोक को प्राप्तकर लम्बे समय तक साक्षात् मोक्ष के अंतरायरूप स्वर्ग में रहता हया रागरूपी अंगारों में जलता व दुःखी होता रहता है। अतः समग्र शास्त्र का तात्पर्य यह है कि सर्व ही राग त्याज्य है । अर्हन्तादि का राग भी चन्दन की अग्नि समान अंतर्दाह ही का कारण समझकर साक्षात् मोक्ष के अभिलाषी महाजनों को सब की तरफ का राग छोड़कर, परम वीतरागी होकर, दुःखरूप संसार सागर को पारकर, शुद्धस्वरूप परमामृतसमुद्र में अवगाहन करके, शीघ्र निर्वाण को पाना चाहिए। समस्त ग्रंथ का सार यही है । बहुत विस्तार निष्प्रयोजन है । इसप्रकार तात्पर्य दो प्रकार है - शास्त्रतात्पर्य तथा सुत्रतात्पर्य उनमें शास्त्र तात्पर्य तो वीतरागता है तथा सूत्रतात्पर्य प्रत्येक सूत्र में प्रतिपादित है । अंत में मास्त्रतात्पर्य का सविस्तार स्पष्टीकरण किया है। वहाँ श्रद्धय-अश्रद्धेय. श्रद्धा करनेवाले तथा श्रद्धान के ज्ञेय, अज्ञेय, ज्ञाता व ज्ञान के, आचरणीय, अनाचरणीय, प्राचरण करनेवाले एवं आचरण के और कर्तव्य, अकर्तव्य, कर्ता तथा कर्म के भेदों को समझकर मोहमाल को क्रमशः उखाडकर जीव निर्वाण को प्राप्त होता है। उपरांहार रूप में केवल व्यवहारावलंबी जीव की त्रुटियों का तथा केवल निश्चयावलंबी जीव की त्रुटियों का दिग्दर्शन कराकर निश्चय-यवहार का सम्यक् समन्वित स्वरूप निरूपित करके यथार्थ मार्ग का दर्शन कराया है, जो टीकाकार का निजी वैशिष्ट्य है । शास्त्रसमाप्ति तथा शास्त्रकर्ता की प्रतिज्ञापूति की सूचना देते हुए कहा कि जिनमार्ग की प्रभावना हेतु भक्ति से प्रेरित होकर पंचास्तिकाय ग्रन्थ की रचना की गई है। पंचास्तिकाय शास्त्र अतिसंक्षेप में समस्त वस्तुतत्व प्रतिपादक होने पर भी, अतिविस्तृत प्रबचन का सार है । टीकाकार न अन्य टीकायों की तरह अंत में दीका के कर्तत्व का निषेध किया तथा स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र को समय यास्या टोका का अफर्ता ही घोषित किया है ।। १. मगयच्या या गा.१.५ से १७० तक । २. वही, गा. 2.52 १७नक | २. वही, पा. १७२ तथा प्रतिम कलश ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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