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कृतियाँ । है । सर्वकर्मों से छुटकारा होना द्रव्यमोक्ष है ।' - इसके बाद मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका अधिकार प्रारम्भ होता है। वहीं प्रथम ही मोक्षमार्ग के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है कि ज्ञानवर्शनरूप जीवस्वभाव है, उसमें नियतरूप चारित्र मोक्षमार्ग है । संसारियों का चारित्र या प्रकार झोता है - स्वसमवर्ती तथा परसमयवर्ती । स्वसमयवर्ती चारित्र मोक्ष का मार्ग है । परसमयवर्ती चारित्र प्रास्रवबंध का कारण है। स्वसमयवर्ती चारित्र शुशोपयोगरूप है तथा परसमयवर्ती चारित्र शुभोपयोगरूप है । इसका विशेष कथन करते हुए निश्चय से साध्य-साधन भाव एक ही द्रव्य में तथा व्यवहार में भिन्न द्रव्यों में निरूपित किया है। वहाँ प्ररूपणा अपेक्षा चारित्र दो प्रकार का कहा । ऐसी व्यवहारप्ररूपणा से विरोध उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तना उभयनयाधीन है । प्रागे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग का कथन निश्चय तथा व्यवहार दोनों अपेक्षाओं से किया है । निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग में साध्य-साधनपने का व्यवहार भी उपचरित होता है। जो प्रात्मा को आत्मा से आचरता है, जानता है तथा देखता है; वह प्रात्मा ही चारित्र है। मान है तथा दर्शन है । यथार्थ वस्तुस्वरूप तथा मोक्षमार्ग की श्रद्धा करने. वाला भव्यजीव मोक्षमार्ग के योग्य है, परन्तु अभव्य उसमें श्रद्धा नहीं करता हुया उसके अयोग्य है । प्रागे कहा कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र यदि अल्प भी परसमयरूप प्रवृत्तियुक्त होते हैं, तो वे बंध के हेतु कहे गये हैं। तात्पर्य यह कि वर्शन-ज्ञान-चारित्र के साथ विद्यमान परसमयरूप प्रवृत्ति या शुभराग ही बंध का कारण है, यथार्थता दर्शन-ज्ञान-चारित्र बंध के कारण नहीं हैं, मोक्ष के ही कारण हैं। अागे लिखा कि भक्ति को मुक्ति का कारण मानना प्रज्ञान है । अर्हन्तादि की भक्ति से पूण्य बंध होता है, कर्म का क्षय नहीं होता है । अतः जिनेन्द्रभक्तिविषयक रागकण भी हेय ही है, बंध का ही कारण है । उक्त राग त्यागने योग्य है, क्योंकि अर्हन्तादि की भक्ति राग बिना नहीं होती, राग मे बुद्धि का प्रसार होता है, बुद्धिप्रसार होने से शुभाशुभ कर्म का निरोध नहीं होता है, इसलिए यह सूक्ष्मप्रशस्त राग भी अन,संतति का मुल रागरूप क्लेग का ही विलास है। अतः समस्त
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१. समयपाल्या: मा. १५० से १५३ तक । २. कही, गा, १५ मे १६१ नक । ३. बही, गा, १५२ से १६४ तक।